एक लाइटनिंग कंडक्टर होना चाहिए था।
पुराने समय के विद्यार्थियों की चोटी की तरह सर पर लगा होता। सारे सफ़र, सब दृश्य, सब प्रेमिल संग किसी आवेश की तरह दिमाग में जमे नहीं रहते। वे विद्युत प्रवाह की तरह दिमाग से दिल से होते हुए पाँवों के रास्ते धरती में समा जाते। हम कोरे खाली हो जाते। आगे बढ़ जाते। सब कुछ यथावत हो जाता।
एक बहती हुई नदी पीछे छूट जाती। एक ठहरी हुई निगाह आगे बढ़ जाती। सब छुअन हवा के संग कहीं खो जाती। मद भरे प्यालों की स्मृति अलोप हो जाती। रात की नीरवता में चुप खड़े रास्तों और हवा की शीतलता के अहसास भूल के किसी खाने में जा गिरते।
सफ़ेद टी पर दिखती शहरी धुएँ की हल्की परतें, जींस पर उगी सलवटें, हाथों से आती लोहे की गंध को धोकर साफ कर लिया। कोई खुशबू उनमें नहीं बची मगर दिल उन्हीं सब को महसूस करता रहा। सफ़र के हिचकोले, घर में थमे भी नहीं थे कि ग्रहों की चाल ने कहा। अपनी कार बाहर निकालो और चल पड़ो।
सफ़र फिर शुरू हो गया। कहीं गहरी नींद का कोई झौंका जबरन आया। जाग में भी उनींदापन हावी हो गया। कार आहिस्ता कर विंडो ग्लास नीचे करके तपती सड़क से उठते भभके से आँखें सेक ली। आँखें देखने लायक हुई तो उनमें फिर से बीते हुए दृश्य घुलने लगे।
कोई दसियों बरस पीछे के यायावर मन ने किसी दूर देस की राह पकड़ ली। देखा कि सूर्य मंदिर के आगे त्रिशूल ज़मीन में गड़ा था। क्या वह भी एक तड़ित चालक है। सूर्य की रोशनी को अपनी तीन शिखाओं से सकेर कर ज़मीन में रोपता हुआ।
ये दरवाज़े के पास का लाल रंग किस लिए है। ये पीले उजास का आकार क्या कहता है। ये रंग और त्रिशूल क्या सामने बहती हुए नदी के भूतल में ऊष्मा रोप रहे हैं। इस बीते क्षण की स्मृति का निदान कर रहे हैं।
मनुष्य के मन का भी क्या कोई निदान होता है।
पत्थरों के किनारों को छूकर आगे बढ़ता हुआ नदी का पानी अपने साथ पत्थरों की छुअन की कितनी स्मृति साथ लेकर जाता होगा। पानी का कितना मन वही छूट जाता है। क्या पानी कभी मुड़कर दोबारा उसी छुअन के लिए मचल जाता होगा। क्या पानी का कोई मन नहीं होता।
अगर मन नहीं है तो पानी अपने भीतर शीतलता, ऊष्मा और सादगी कहाँ से लाता है। पानी अपने प्रेम का क्या करता है?
मन भटकने लगता है। वह बरसों पीछे कठोर हो चुकी त्वचा पर कुदाल की तरह चलता है। क्या खोज लाना चाहता है। वे दिन कब के जा चुके हैं। उन दिनों को फिर से वैसा नहीं पाया जा सकेगा। बीते समय के रोम छिद्र बंद हो चुके हैं। फिर भी मन कुछ खोज ही लाता है।
अंगुलियाँ फिर कोई तस्वीर छांट कर उसे छूने लगती है। ये मेरा चेहरा है। ये किसका चेहरा है। ये कहाँ गया। अचानक सफ़र की स्मृति का हिचकोला सचमुच का लगता है। बाहर धूप है। मौसम मैं उमस है। सोचने लगता हूँ कि क्या ये वही महीना है। जिसके स्वागत में अनेक लोग प्रसन्नता से खड़े थे। फिर इस रेगिस्तान में वह मौसम इस महीने के साथ क्यों नहीं आया। कहाँ छूट गया।
मैं कुछ फिर से लिखना चाहता हूँ। उसकी पहली पंक्ति अपनी पिछली लिखावट से उठाना चाहता हूँ कि एक रोज़ सब बदल जाता है। इसके आगे ये दिलासा नहीं लिखना चाहता कि बदल जाना अच्छा है। हम एक ठहरे हुए समय में बहुत जल्द ऊब जाएंगे।