भोपाल, दिल के कोने में एक भीगा सीला नाम है। [एक]
रेगिस्तान जिस मौसम से गुज़र रहा था, उसमें दिन गरम और रातें शीतल थी। जाने क्या चीज़ लौट आई थी कि छत पर बैठे हुए बहुत पास के कोहसार दिखने बंद हो चुके थे। उन पर खड़ी की गई बिजली की कंदीलें अपने होने का अहसास भर देने लायक बची थी। कभी-कभी वे भी बुझती हुई सी जान पड़ती थी।
हवा का झौंका आता तो बदन एक शीतल छुअन के कारण झुरझुरी से भर जाता। हल्के पतले टी पहने हुए वहाँ बैठे रहना कठिन था। गरम कपड़ों जैसा हाल नहीं था। मुझे महसूस होता कि ये व्हिस्की से विदा लेने का मौसम तो है मगर रम लायक नहीं है। प्रेम से निष्क्रमण के लिए विचार कर रहे दिल की आफ़त जैसा हाल था। न रहते बने, न छोड़ते।
फ़ोन पर एक दोस्त ने पूछा “भोपाल जाएंगे?”
मैंने कहा “शायद”
एक शब्द का जवाब देने के बाद मैं कहीं खो गया। बहुत पीछे भोपाल एक शहर था, जहां जाना था। हम दोस्त फ़ोन पर बात करते रहे। हमारी बातों के समानान्तर एक पुरानी याद साथ-साथ चलने लगी थी। शायद शब्द के साथ एक पक्की बात सामने आ खड़ी हुई कि सबकुछ शायद ही है। किसी शाम भोपाल जाने का गहरा मन सिरहाने खड़ा हुआ कहता था। “तुम तो रेगिस्तान के आदमी हो। तुमको ऊंट जैसे पाँव इसलिए ही दिए हैं कि दूर तक जाओ। तुमको जाना चाहिए”
आकाशवाणी के खुले परिसर में उग आई घास बहुत बड़ी हो चुकी थी। कुछ बेमौसम के फूल भी थे। मैंने बेरी की ओर झाँका तो याद आया कि जल्द ही इस पर मीठे बेर आएंगे। पिछले तमाम बरसों की तरह इस बार भी कुछ मीठे बेर चुनूँगा। उनको अपने साथ घर ले आऊँगा। आँगन में रखी छोटी कॉफी टेबल के काँच पर उनको फैला दूंगा। कंचों की तरह बिखरे हुए बेर बिना कहे ही मेरे मुंह में एक खट्टा मीठा स्वाद भर देंगे।
मैंने फिर से कहा “शायद”
उसने पूछा “क्या?”
मैंने कहा “बेर”
अग्निशमन की एक गाड़ी भोंपू बजाते हुए पास से गुज़री। मैंने कहा “हालांकि गर्मी का मौसम जा चुका है फिर भी कहीं न कहीं आग लग रही है।“ कुछ देर की चुप्पी के बाद दोस्त ने कहा “इसका कोई हल नहीं है। भोपाल जाने की टिकट ले लें तो बताइएगा”
कुछ क्षण फ़ोन पर चुप्पी रही फिर मैंने ही कहा “तुमको तो पता ही है। मैं कहाँ जाता हूँ। बस वह जो एक आदमी है, जिसने मेरी किताबें छापी, उसके लिए मन में एक हरा कोना है। उस आदमी के बढ़ते हुए काम को देखकर मन और हरा हो जाता है। इसलिए शायद चला जाऊंगा।“
उसने कहा “शायद”
संजय का फ़ोन आया। मैंने पूछा “भोपाल” उन्होने कहा “यस दादा। मैं दो दिन बाद बाड़मेर आ रहा हूँ। फिर प्लान करते। वैसे मेरा मन है”
स्टेशन रोड पर उल्फ़त की दुकान से कुछ पहले लाइसेन्सी हथियारों की दुकान है। मुझे लौटता देखकर उल्फ़त ने अपनी कत्थई अंगुलियों से इशारा करके पूछा। जिसका अर्थ था कि कहाँ चले। मैंने इशारे से जवाब दिया कि यहीं हूँ लौटता हूँ। लेकिन इशारा ठीक-ठीक क्या था मैं बता नहीं सकता। मैं खुद भी याद करने में असमर्थ हूँ कि मैंने कैसे ये बताया होगा कि अभी आया।
कुछ बरस पहले माधव राठौड़ ने आभासी दुनिया के मित्रों का वास्तविक मिलन समारोह करना आरंभ किया था। उसी सिलसिले में पहली बार रूपेश सोलंकी से मुलाक़ात हुई थी। वे रूपेश इन दिनों काँच की अलमारी में सलीके से खड़ी की हुई बंदूकों के आगे बैठे हुए मिल जाते हैं।
उस मुलाक़ात में मालूम हुआ कि सांगी लाल सांगड़िया जी उनके ससुर जी हैं। वे मेरे पिताजी के सहकर्मी और मित्र थे। वे अंतर्राष्ट्रीय स्तर के भवाई नर्तक थे। उनसे पारिवारिक आत्मीयता ऐसी रही कि सांगड़िया जी जब आकाशवाणी में रिकॉर्डिंग के लिए आते तो पूछते “किशोर कैथ है?” मैं आता तो उनके सामने झुक जाता। वे सब कलाकारों को कहते “म्हारो छोकरो है। शेर जी माड़सा आलो” भले लोग थे। कूच कर गए।
रूपेश सोलंकी से पहली मुलाकात में निकटता का इकलौता कारण रहा, वे जा चुके लोग। जो हमारा जीवन संवार कर गए।
छोटी गोल्ड फ़्लेक का आखिरी सिरा आ चुका था। उसे बुझाते हुए उन्होने कहा “केसी सर”
मैंने उनसे पूछा “भोपाल”
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क्रमशः
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