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जोधपुर, प्रेम और शिकवों का शहर

दिल तो नहीं होता मगर कभी-कभी मैं एक बार मुड़कर देख लेता हूँ। शायद उसे अच्छा लगेगा। जब मैं खुद के लिए मुड़कर देखता हूँ तो पाता हूँ कि कुछ फ़ौरी शिकायतें थी। वे उसी समय कर ली। लड़ लिए और फिर आगे उनको सदा के लिए भुला दिया। कहा “जाओ खुश रहो। हमने जो प्यार किया है वह काफी है” ठीक ऐसे ही अपने शहर से हर बार निकलता हूँ।

बाड़मेर शहर के आखिरी पुलिये के नीचे रुके हुए, हम छगन का इंतज़ार करते हैं। रूपेश सोलंकी अपनी कार में ही बैठे थे। मैंने कहा “बाहर आ जाइए। छगन से पुराना परिचय है। जब उसे कहेंगे तभी वह घर से निकलेगा। उसे आने में समय लगेगा।“

ओवर ब्रिज के ऊपर से गुज़रती गाडियाँ जैसलमेर के रास्ते जा रही होंगी। निजी ट्रेवल्स के दफ़्तर की बेंच पर ड्राईवर सो रहे होंगे। सामने अँग्रेजी शराब की दुकान के पीछे अंधेरे में सीलापन ठहरा होगा। कोई मैकश बीयर सूंत रहा होगा। मैं पुल के नीचे खड़ा हुआ कयास लगा रहा था। सामने एक बस खड़ी थी। सीमा के पास वाले आखिरी गांवों तक जाएगी। वे गाँव रेत के बीहड़ में बसे हुए हैं। वहाँ जीना बहुत हुनर मांगता है।

“लीजिये छगन कुमावत आ गए हैं” इतना कहते हुए रूपेश जी ने सामान रखने की व्यवस्था बनाई तुरंत ड्राईवर सीट पर बैठे और चल दिये। असल में उनको दो दिन से कह रहा था कि सर सुबह दस बजे चलेंगे। वे मुझे भरोसा दिला रहे थे कि साढ़े दस तक फ़ाइनल। उनका आना हो पाया बारह बजे के आस पास। इसलिए वे रोडवेज के वाहन चालकों की तरह लेट निकाल लेना चाहते थे।

“सर अपन साढ़े तीन बजे जोधपुर पहुँच जाएंगे। अपनी गाड़ी है साढ़े चार बजे की। कोई चिंता की बात नहीं है।“ इतना कह कर उन्होने मेरी सहमति भी चाही। मैंने कहा “कहीं जाने में कोई देरी नहीं होती है। सब कुछ नियत है। सब अच्छा होगा”

बाड़मेर से एक रास्ता जैसलमेर को जाता है। एक गुजरात की ओर। हम जा रहे थे जोधपुर। मारवाड़ की राजधानी। जोधपुर पहुँचते ही लगता है कि आप देश में आ गए हैं। यहाँ से कहीं के लिए भी निकला जा सकता है। आप न निकलें इसकी भी संभावना है। दूध-फ़िणी और समोसे मिर्ची बड़े के लिए स्थायी रूप से बस भी सकते हैं। दुनिया श्रेष्ठ गपोड़िए ओर्गेनिक रूप से जोधपुर में उत्पादित होते हैं। बाकी वालों को फेंकने के लिए मुंबई जाकर प्रशिक्षण लेना पड़ता है।

जसदेर नाड़ी से आगे निकलते ही संजय व्यास सर का कॉल आ गया। उनका नाम फ़ोन के स्क्रीन पर देखते ही सुख हुआ। नाम देखना भर इस बात की आशा लेकर आया कि वे तैयार हैं और हमारी यातरा सुंदर होने वाली है। इस फ़ोन कॉल में हिदायत थी कि खाने को कुछ लेकर मत आना। हम लेकर आ रहे हैं। हमने कहा कुछ नहीं ला रहे जबकि हम अपनी तैयारी के साथ थे।

पिछली शाम रूपेश जी ने पूछा था सर और कुछ लेना है। मैंने कहा “सुगण बाई से कहना चार बाजरी  की रोटी बना दें और तीन सूखे प्याज साथ बांध दे। मेरे लिए यही भोजन है, जिस पर आत्मा का भरोसा है। 

उज्जैन में रूपेश के परिवार हैं। उनके लिए बाड़मेर के काचर ले चलने का तय हुआ। रेगिस्तान का आदमी कहीं जाता है तो दुकान से मिठाई खरीद कर नहीं ले जाता। वह रेगिस्तान से कुदरत की भेंट ले जाना अधिक पसंद करता है। बहुत बरस पहले मैं पुस्तक मेला में गया तो रमा भारती जी के लिए सूखी हुई सांगरी लेकर गया था। वहाँ से लौटने के बहुत दिन बाद उन्होने कॉल करके पूछा “ये जड़ी बूटियाँ कैसे बनानी है”

बाड़मेर जोधपुर के मार्ग पर बरसात के बाद आस पास के किसान काचर चीमड़ी और मतीरे लेकर बेचने के लिए बैठते हैं। सब मार्गों पर पीलू और खूम्भी माने मशरूम भी बिकती है। लोग रुक कर खरीदते हैं। हमने भी दस किलो काचर खरीद लिए। एक बार रूपेश जी का मन हुआ कि कम कर लें मगर मैंने कहा “उज्जैन में कहाँ मिलेंगे। मिलेंगे तो रेगिस्तान वाला स्वाद कहाँ होगा?”

हमारी यात्रा जारी थी कि डॉक्टर फतेह सिंह भाटी सर का फ़ोन आ गया। हम सबको कम ही भरोसा था कि सर चल पाएंगे। वे मेडिकल के प्रोफेसर हैं। लेकिन इन दिनों जोधपुर के एक बड़े अस्पताल के अधीक्षक भी हैं। ये एक तरह से प्रशासनिक कार्य है।

उमादे जैसा ऐतिहासिक और सुघड़ उपन्यास लिखने वाले फतेह सर का परिवार चिकित्सकों का परिवार है। अल्पायु में ही पिताजी नहीं रहे लेकिन माँ ने बच्चों को विद्वान बनाया। मन से भले वे अपने जींस के कारण होंगे। ऐसे व्यक्ति का साथ कितनी खुशी दे सकता है। इसे लिखने के लिए शब्द नहीं है।

बाड़मेर से जोधपुर दो सौ किलोमीटर दूर है। संजय और भाटी सर के साथ होने की खुशी में ये समझना कठिन था कि हम अब आश्वस्त हैं या पहुँच जाने के लिए बेचैन है।

बीच रास्ते में रेगिस्तान में रिफाइनरी उग रही थी। अब उसने सर उठा लिया है। मुझे रेगिस्तान में कल कारखाने नहीं चाहिए। मैं रेत पर लिखी हवा की सलवटों को देखना चाहता हूँ। लेकिन ये संसार आपके मन से नहीं चलता है। रेत भी हमेशा के लिए नहीं है।

पचपदरा में नमक का उत्पादन होता है। अंग्रेजों ने यहाँ तक रेल की पटरी भी बिछाई थी। रेलवे स्टेशन था। मुझे कुछ लोगों ने बताया कि बालोतरा के सेठ यहाँ रेलगाड़ी लेकर आए थे। जो भी जैसा भी हुआ लेकिन अब रेल के होने के कुछ अवशेष बचे हैं। रेल गाड़ी बालोतरा से बायतु होते हुए बाड़मेर चली आती है। पचपदरा के आस-पास ठहरे हुए नमकीन पानी में पंछी विचरण करते हैं। उन पंछियों को परदेसी ठिकाने लगा देते है। इसलिए रिफाइनरी के आस पास अब एक बाज़ार बन गया है।

शहरीकरण बढ़ रहा है। नमक के खेत उपेक्षित हैं। हम जोधपुर जा रहे हैं। नहीं, नहीं हम भोपाल जा रहे हैं।

रूपेश गाड़ी चला रहे हैं। मैं उनके बराबर की सीट पर अधलेटा हूं। लगता है  बेथ ओ'लेरी के उपन्यास द रोड ट्रिप में एडी गिल्बर्ट और डिलन एबॉट, दो पूर्व प्रेमी, एक कार यात्रा पर साथ-साथ हैं। दो बरस पहले की नज़दीकी फिर से बढ़ने लगी है। प्रेम में दूसरा मौका बन रहा है।

बेथ ओ'लेरी की किताबें बारह तेरह सौ रूपयों की होती हैं। मुझे समझ नहीं आता कि वे पाठक कौन हैं? जो प्रेम, सहवास और दुखों को पढ़ने के लिए इतने रुपए खर्च करते हैं। और ये सब सिलसिले से चलता रहता है।

हालांकि मैं इस दुनिया के बारे में जानता ही क्या हूं?

मुझे बस इतना मालूम है कि कुछ देर बाद मैं अपने प्रिय लेखकों मित्रो के साथ मन्नारगुडी जाने वाली रेल में सवार होने वाला हूं।

रेतीले मैदान से पथरीली ज़मीन की ओर बढ़ती हुई हमारी यात्रा जोधपुर के निकट आते जाने का संकेत था। रेत में चलना कठिन होता है। पाँव धँसते जाते हैं। पथरीली ज़मीन पर चलना रेगिस्तान के आदमी के लिए अभ्यास के अभाव में कठिन होता है। हम कार में थे लेकिन लग रहा था की पाँव तले सख्त ज़मीन आ गई है।

रूपेश जी के कार आडिओ प्लेयर में लता जी के गीत प्ले हो रहे थे। वे रुके तो मैंने हंसराज हंस को प्ले कर दिया। लोग उनको सीली सीली हवा के कारण जानते हैं मगर हंसराज हंस ने लोक को बेहिसाब गाया है। वे ग़ज़ल भी सुंदर गाते हैं। उनके सुरों में कहीं बिछोह का गहरा दर्द है। ये बिछोह विभाजन की किसी स्मृति से उपजा होगा।

जोधपुर शहर की जद में आते ही लगता है रेगिस्तान कहीं खो गया है। हम बहुत दूर चले आए हैं।

दोपहर जा चुकी थी। धूप एक रोशनी बनकर रह गई थी। हवा में आर्द्रता थी। कार से बाहर आते ही पसीने ने घेर लिया। माधव राठौड़ के आवास पर कार रखते हुए मैंने एक ऑटो रुकवा लिया।

“भई सा रेलवे स्टेशन”

ऑटो वाले ने गरदन हिलाते हुए कहा “चालो”

मुझे मालूम था कि भाड़ा पूछे बिना बैठने पर आप चाशनी में फंसी एक मक्खी की तरह हो जाएंगे। जोधपुर वाले प्यारे हैं। वे कहेंगे “भई सा आपरीज गाड़ी है। जो मन होवे” इसके बाद जो अपनी गाड़ी है उसका मन चाहा भाड़ा भी लग जाएगा। ऑटो वाले ने रातानाडा से रेलवे स्टेशन तक हमको मात्र दो सौ रुपए में पहुंचा कर अपनेपन का गहरा परिचय दिया। तीन किलोमीटर की दूरी है। आने जाने का भाड़ा मिलाएँ तो भी भई सा पैंतीस रुपए किलोमीटर के हिसाब से चले। 

जब लोग कहते हैं जोधपुर-जोधपुर तो मैं मुस्कुरा उठता हूँ। इस शहर के बाशिंदों का सामान्यीकरण नहीं किया जा सकता लेकिन इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि भाई-भाई के बीच कैसा हिसाब? ये लोग बाड़मेर में होते तो जैसे कहावतों में भाटी लोग ऊंट छीन कर ले जाते थे, वैसे ही इनका ऑटो बार्डर के पार हो चुका होता।

हमारी कार जमा हो चुकी थी। माधव साहब ऑफिस में ही थे लेकिन बच्चे हमारा गेट पर इंतज़ार कर रहे थे। बस यही आत्मीयता मन को भिगो देती है। बाड़मेर का आदमी जोधपुर में भी भला इंसान होता है।

रेलवे स्टेशन के एस्केलेटर से पारपथ पर आकर मैंने और छगन ने रूपेश जी से कहा “आप यहीं बैठिए। हम कुछ खाकर आते हैं”

जोधपुर आने पर मैं अपने आप को रोक नहीं पाता हूँ। मिर्ची बड़ा खाना मेरी कमजोरी है। हालांकि अब जनता स्वीट होम के मिर्ची बड़े छोटे चूहों जितने रह गए हैं। उनका कुपोषण दक्षिण अफ्रीकी देशों से भी अधिक है। क़ीमत पैंतीस रुपए आस पास हो चुकी है। बाड़मेर में अब भी बीस रुपए में रेलवे स्टेशन पर जाने वाले चूहों जितना मिर्ची बड़ा खा सकते हैं। हमने तीन मिर्ची बड़े और तीन लस्सी ली थी। पाँच सौ के नोट की आधी चें बोल गई। भई सा काका जी री दुकान नी है।

यात्रा और आगे का सोचना कभी-कभी उदास करता है। या बहुत थकान से भर देता है। रूपेश जी थक चुके थे। मैं और छगन उनके लिए मिर्ची बड़ा और लस्सी लेकर आए। उन्होने उसे किसी उदास क़ैदी के अल्पाहार की तरह स्वीकार किया।

पाँच नंबर पर रेल आनी थी। संजय और रेखा भाभी मिल गए थे। भाटी सर की तलाश थी। वे एक प्याऊ के पास खड़े मिले। रेगिस्तान में प्याऊ के पास खड़ा आदमी असली रेगिस्तानी माना जाता है।

क्रमशः

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