पूजा स्थलों के अनेक रिच्युयल होते हैं। अक्सर जोड़े में या आगे पीछे दर्शन करने की मान्यता बड़ी है। आप कहीं जाएँ तो कोई कह देगा कि इसके बाद आपको वहाँ दर्शन करने होंगे वरना ये अधूरा रह जाएगा। मैं ऐसे कभी कहीं गया नहीं। वैसे भी मंदिरों और दरगाहों पर मेरा जाना इसलिए हुआ है कि जो साथ था, उसका गहरा मन था। उनके साथ गया। फिर जब उन्होने कहा कि अब यहाँ भी चलना है तो मैं बाहर ही रुक गया। आप जाकर आइए। मैं यहीं बैठा हूँ। थक गया हूँ।
जब कोई बच्चा मिट्टी से खेल रहा होता है तब आप उसके साथ खेलने लगते हैं। आप खेलते हैं क्योंकि आप उससे प्यार करते हैं। बच्चा ईश्वर का दूत है। वह मिट्टी को परमानंद समझता है। आप अज्ञानी उसे मिट्टी समझते हैं। मैं भी ऐसे ही मंदिर दरगाह चला जाता हूँ। मुझे साथ वाले की आस्था पर भरोसा है। मैं मानता हूँ कि उसका जीवन अच्छा हो जाएगा। तुरंत कोई चमत्कार न हुआ तो भी वह भीतर से मजबूत रहेगा।
जीवन बहुत कठिन है। इसे बिताने को बहुत जुगत लगानी पड़ती है।
हम फिर से ई रिक्शा पर थे। रूपेश जी के घर जा रहे थे। वहाँ हमको लंच करना था। हमारे बार-बार मना करने पर भी रेगिस्तानी की मनवार भरी मेजबानी ने हमको घेर लिया था।
हम रोटी खा रहे थे। थालियाँ सुंदर सजी हुई थी। स्वाद बेहिसाब था। हम भूल गए कहीं यात्रा पर हैं। इस पर घर के भीतर से आती सास बहुओं की बातचीत हमारी भूल को और बढ़ा रही थी। इसलिए कि रेगिस्तान से बहुत दूर उज्जैन के एक घर के भीतर से धाटी बोली सुनाई दे रही थी।
जातियों के दंभ और हीनता बोध से भरा रहने वाला रेगिस्तान अब कुछ बदल गया है। कुछ लोग पढ़ लिख गए हैं। उन्होने नक़ली ऐंठ को सावधानी से बरतना शुरू कर दिया है। कुछ एक सचमुच जाति के दंभ और हीनता भाव से बाहर आ गए हैं। ये सुंदर है। लेकिन इसके खतरे बहुत हैं। रेगिस्तान में पहला सवाल नाम है, दूसरा जाति है। इसके बाद ही आगे का व्यवहार है।
आप समाज में विवेकपूर्ण समानता का विस्फोट नहीं कर सकते। ये बदलेगा तो आहिस्ता बदलेगा, नहीं बदले इसकी संभावना अधिक है। इसलिए अपने मन के लोगों को चुनिये। जाति को मत चुनिये। ताकि जहां जाएँ मनुष्यों से आपका वास्ता हो। आप उनके साथ प्रेमपूर्ण समय बिता सकते हैं। आपको चौधराहट का बोझ उठाए न रहना पड़े।
मेरे पास जीवन बिताने लायक पैसा आता रहता है। लेकिन मैं एम्प्टी पॉकेट ही हूँ। इसका अर्थ है कि पूंजी के नियोजन में असमर्थ व्यक्ति। जिसके पास कोई प्लान नहीं है कि धन का खर्च कैसे किया जाना है।
भोजन पश्चात घर के नन्हें बच्चों को कुछ तो देना चाहिए। आप बड़ों का तो प्रेम है, सहयोग है, उनका क्या है। इतने लोगों के घर आने की उनको क्या खुशी है। मेरे पास रुपए नहीं थे। होने भी नहीं चाहिए वरना छगन से मांगने का सुख कैसे होता। मैंने कहा “भाई छगन पाँच सौ रुपए हैं?”
ये एक ज़रूरी बात थी। छगन से लिए और रूपेश जी के पोते को दिये कि अपने लिए कुछ खरीदना। पोते को पाँच सौ रुपये की गरज नहीं थी। वह केवल एक बात याद दिला रहा था। रुपेश दादा ने मेरे पापा को और मुझे टकला किया। ये कहते हुए वह अपने सर पर हाथ भी फेर रहा था। उसने रूपेश दादा से एक हेलीकॉप्टर की डिमांड की। ऐसा जो ज़मीन पर चलता हो।
मेजबानी का कोई मोल नहीं होता। अगर आप मेजबानी की कीमत लगाने चाहें तो आपको खुद को बेचना पड़ जाएगा। मेजबानी की कहानी कभी बाद में सुनाऊँगा कि उसका मोल क्या होता है।
उज्जैन से भोपाल दो बजे की रेल थी। हम एक बजे ही पहुँच गए। अब तक रूपेश जी और अन्य दोस्त समझ गए कि ये एक डरपोक आदमी है। इसे सही समय रेलवे स्टेशन के आगे बिठा दो, शांति रहेगी। हालांकि इसका कोई नुकसान नहीं हुआ। कि धुआँ करने का सुंदर अवसर बना। धुआँ करते हुए खयाल आया कि एक यात्रा सम्पन्न हो चुकी है। दूसरी यात्रा यहाँ से आरंभ होती है। पहली यात्रा के केंद्र में महा कालेश्वर थे। आगे उनके आशीर्वाद से साहित्यिक जमावड़े की यात्रा थी।
मैंने पहली बार किसी लोवर ग्रेड के थर्ड एसी में प्रवेश किया था। मैंने डॉक्टर साहब से कहा ये कैसा एसी कोच है। इसमें और थर्ड एसी में क्या फर्क है। ये चर्चा कुछ देर चली। इसका हासिल ये रहा कि शायिका की चौड़ाई कम कर दी गई। इस तरह कुछ शायिकाएँ बढ़ा ली गई है। भाड़ा कम है मगर बहुत कम नहीं है। इस कोच में आपको भरपूर मनोरंजन मिलेगा। हो-हल्ला, संगीत और चाय चाय ठंडआआआ!
मज़ेदार।
डॉक्टर साहब सो गए। रूपेश जी तो गहरी नींद में चले गए। छगन का कोच दूसरा था। छगन की सब टिकट्स बाद में बुक की थी। शैलेश जी ने बहुत बाद में बताया कि छगन को साथ लेते आइये। कुछ उसकी अपनी व्यस्तताएँ थी। हालांकि हमको भी बस सूचित ही किया था कि इस तारीख को आयोजन है। आने का कोई औपचारिक निमंत्रण नहीं था। लेकिन हम रेगिस्तान के लोग मानते हैं कि सूचना ही निमंत्रण है। वरना कोई सूचित ही क्यों करता।
रेल चल रही है। वह रुकी हुई है। ये कोई एक्सप्रेस है या ये लोकल है। कुछ समझ नहीं आ रहा।
मैं कमर सीधी करने के लिए सोना चाहता हूँ मगर नींद नहीं आती। मुझे शाम को भोपाल में होना है। अब कोई नौजवानी नहीं रही कि देर तक जाग लेंगे। इसलिए यथासंभव आराम कर लिया जाए। मैं सोचता हूँ कि पिछले बरस बनारस में अच्छी व्यवस्था थी। अच्छे से मेरा आशय होता है कि एक जगह हो। ताकि मिल सकें बहुत देर तक मिल सकें। जाने फिर कभी ये अवसर बने या न बने।
मैं शैलेश जी के हौज़ खास वाले घर पर भी सोया हूँ। वह आत्मीयता किसी पाँच सितारा होटल में नहीं हो सकती। इसलिए जो प्रेमपूर्ण और साथ-साथ व्यवस्था है, वही सबसे सुंदर है।
रेल भोपाल की ओर चली जा रही है। मैं इस यात्रा से उकता रहा हूँ। मैंने लगभग तय कर लिया है आगे से कभी नहीं जाऊंगा। मैं ऐसी यात्राओं के लिए नहीं बना हूँ। मैं अपने मन से चलते हुए कहीं भी रुक जाना चाहता हूँ।
किसी चाय की थड़ी पर चुप बैठे रहें। कोई आए तो दुआ सलाम हो जाए वरना मौन का बाजा बजता रहे।
Comments