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रेल केवल पटरी पर नहीं चलती



हम बोझ उठाए हुए किसी जगह की ओर क्यों बढ़ते हैं? हम कहीं जाते हैं तो कोई चाहना तो होती होगी। प्रेमी को प्रेमिका से मिलने की, ख़ानाबदोश को नया ठिकाना तलाश लेने की, चित्रकार को किसी की आँखों में रंग भर देने की, व्यापारी को सौदा पट जाने की, शिकारी को शिकार मिल जाने की माने जो कोई कुछ चाहता है, वह यात्रा करता है।

मैं किसलिए छुट्टी लेकर, अपना रुपया खर्च करके, मित्रों को सहेजते हुए भोपाल की ओर जा रहा हूँ? रेलवे स्टेशन पर बने पारपथ से उतरते हुए यही सोच रहा था। किसी ने तुम्हारी किताब छाप दी तो क्या ये कोई उपकार की बात है? कोई तुमसे तुम्हारे सामने हंस कर बोल लिया तो क्या कोई अहसान है? खोजो वह तंतु क्या है? जो असल में तुमको उसके करीब होने को उकसाता है। 

यही सोचते हुए मैं सीढ़ियाँ उतर रहा था। मेरे कंधे पर एक थैला था। मेरे हाथ में एक पानी की बोतल थी, जो आधी खाली थी। मेरे आस-पास बोरिया भरे हुए कुछ लोग थे, जो कहीं पहुँच जाना चाहते थे। मेरे साथ एक छोटा लड़का था, जो सिनेमेटोग्राफर बनाना चाहता है। मेरे ठीक पीछे एक अधेड़ आदमी था, जो अपनी तनख्वाह से दो बच्चों को पालना संवारना चाहता था। जो अपनी संगिनी को सदा खुश देखना चाहता था। मैं अपना एक पाँव रखते हुए सोचता कि ठीक है, अगला रखते हुए सोचता अब कभी नहीं।

मैंने दस बारह बरस पहले एक लड़के को देखा। वह एक ख्वाब के साथ जी रहा था। संजय ने मुझे उसके बारे में बताया था। कि इस से किताब छापने के बारे में बात करनी है। उस ने किताब छाप दी। मुझसे पैसा लेकर छापी। मेरा सब पैसा लौटाया। अपने प्रकाशन के लिए एफर्ट लिए मगर मैंने माना कि मेरे लिए थे। आगे उस ने बहुत ईमानदारी से काम करते जाने की बातें कही। उसे देखकर, उससे मिलकर सुख हुआ। चाहा कि ये आदमी हर रोज़ आगे बढ़े और सुखी रहे। बस।

मैं शायद इसलिए ही कंधे पर कपड़ों से भरा थैला डाले हुए अपने रेल कोच को खोज रहा था। लेकिन जिस तरह आप सोचते मन से हैं, जवाब परिस्थिति से पाते हैं। उसी तरह रेल कोच पोजीशन कुछ और लिखी थी, कोच लगे हुए कहीं और थे।

लेकिन मैं जहां कहीं भी था, मेरे पास प्रेमी थे। इसलिए कि उनसे प्रेम मैं करता हूँ।

छात्राओं का एक दल था। जो दक्षिण से पश्चिम की यात्रा पर आया था। वह लौट रहा था। उनको देखते हुए, मैंने पीछे झाँका। एक सुंदर लड़का चला आ रहा था। उसकी मुस्कान कहती थी कि ये छगन है। सीढ़ियों के खत्म होने के ठीक सामने संजय खड़े थे। वे संजय, जो मुझे बता रहे थे कि कैसे कहाँ पूछना है। मैंने उनको कभी नहीं बताया कि किसी ने मेरे लिए बीसियों मेल प्रकाशकों को चुपचाप लिखे थे, इस आदमी को छापिए।

मैं अक्सर सोचता हूँ कि छप कर क्या हो जाते हैं, न छपने से क्या नुकसान हो जाता है। छापाखाना तो व्यापारियों का है। तुम तो लेखक हो। असल में लेखक भी नहीं हो, बस अपना मन लिख देना चाहते हो। इतनी सी बात है। इस बात के कारण तुम्हारा उनसे कोई मेल नहीं है। न तुम बिकाऊ आइटम हो, न तुमको कोई बेच सकता है।

रेगिस्तान के लोग खरी बात कहने की जगह पर चुप नहीं रहते। मैं उनसे बचकर चलता हूँ मगर कभी कहीं सामना हो जाता है। वे किसी प्रहसन के संवाद, किसी व्यंग्य की पंच लाइन या फिर हंसी के खोल में लपेट कर कोई ऐसी बात कह ही देते हैं कि खुद पर सोचना पड़ता है। हालांकि सब यथावत रहता है कि मैं क्या ही हूँ। जो है सो अच्छा है।

आपको कभी ऐसे मित्र मिलें तो सघन हताशा में दुआ करना कि वे साथ बने रहें। बस।

रेल कोच में अपनी सीट के मुतालिक व्यवस्था बनाते हुए मैं चाहता हूँ कि जो आस पास हो सके, वे हों। सब बन जाने के बाद मुझे एक जगह ठीक मिल जाती है। मैं उससे प्रसन्न हूँ। इसलिए कि बहुत बरस पीछे रेल यात्रा में एक भिखारी से दिखने वाले अमीर आदमी ने मुझे कहा “तुम यहाँ अखबार बिछा लो। अपना सर दरवाज़े से टिका लो और सो जाओ। मैं सुबह तुमको जगा दूंगा”

मैं उस समय भी गरीब था मगर मेरे पॉकेट में चार हज़ार रुपए थे, जो किसी क्लास वन ऑफिसर की एक महीने की तनख्वाह थी। सुबह रेवाड़ी आने पर मैं जगा। वह आदमी दरवाज़े का सहारा लिए बैठा था। मैं उसके सहारे से सो कर उठा था। मैं केवल बाईस साल का नौजवान था। वह आदमी मुझे देखकर मुस्कुराया। मैंने पुरानी दिल्ली उतरने से पहले उसकी जेब में पाँच सौ रुपए जबरन डाल दिये थे। इसलिए नहीं कि उन पाँच सौ रुपयों से उसका कुछ भला होगा, इसलिए कि प्रेमी के हाथ में कुछ ऐसा दे जाओ, जिसके सामने प्रेम सदा बड़ा रहे।

मैं डॉक्टर भाटी, संजय और जाने कौन? रेल में सवार होने के बाद बेहद खुश हैं। मैं कुछ अधिक उचक-उचक कर बातें कर रहा हूँ। जिससे लगे कि मैं और मेरे साथी कुछ विशेष हैं। ज़ुबान पर लगाम नहीं लगाई जा सकती। इसे घटित होने बाद सोचकर केवल अफसोस किया जा सकता है। अपने को सांत्वना दी जा सकती है कि बकवास का आनंद था।

रेलगाड़ी जोधपुर से चल पड़ी है। ये भोपाल की ओर जा रही है। मगर हम उज्जैन उतरने वाले हैं। डॉक्टर साहब का कहना है कि महाकालेशवर के दर्शन करना अनिवार्य है।  

बाड़मेर से भोपाल की दूरी बारह सौ किलोमीटर है। ये सोचकर कभी-कभी अच्छा लगता है कि देश के सूने कोने में बसे रहे। जहां आबादी कम है और रेत अधिक है। कोई किसी और से मिलने जाता हुआ बाड़मेर से होकर नहीं गुज़रता। बाड़मेर तक केवल वे लोग आते हैं, जिनको बाड़मेर आना होता है।

इधर से गुज़रा था सोचा सलाम करता चलूँ का मामला नहीं बनता है। इधर सलाम करने आया हूँ। इधर दिल का हाल कहने आया हूँ, वाला हाल ही हो सकता है। रेगिस्तान के लोगों का दिल कोई जंक्शन नहीं है कि वहाँ तक आकर किसी और रास्ते चल दिये। रेगिस्तान एक डेस्टिनेशन है। ये रेत में पाँव पसार कर आकाश को देखने के सुख से भर जाने की जगह है।

हम उसी सुख से चलकर दो सौ किलोमीटर की यात्रा कर चुके हैं।

जोधपुर स्टेशन से रेल छूट चुकी है। मेरे सपनों में अनेक बार और असल जीवन में एक बार रेल छूट चुकी है। रेल छूटने का सोचना बहुत डरावना होता है। हालांकि इससे आदमी का कोई बड़ा व्यावसायिक नुकसान नहीं होता किन्तु जाने क्यों मैं इस खयाल से सहम जाता हूँ। रेल मुझसे दो हाथ की दूरी पर चल रही है। मैं उसे पकड़ने को भाग रहा हूँ लेकिन वह मुझसे और दूर हुई जाती है। प्लेटफॉर्म के खत्म होते-होते मैं थक कर रुक जाता हूँ।

तीस बरस पहले की एक दोपहर थी। मैं चूरु से आया था। मुझे सुजानगढ़ रेलवे स्टेशन से डेगाना के लिए रेल पकड़नी थी। मेरी बस थोड़ी देर से पहुंची। रेल मेरे सामने स्टेशन छोड़ कर चली गई। मैं कुछ देर उदासी से भरा खड़ा रहा। किसी बस से जा सकता था। लेकिन रेल का जाना दिल तोड़कर जाने जैसा था। रेल के छूटने के सपने पहले भी आते थे, बाद में भी आते रहे। मैं सपनों में पसीने से भीगा हुआ खड़ा रहता था। मेरे पाँव जड़ हो जाते थे। मेरी सारी ताकत कोई चुरा लेता था।

दिल्ली में शैलेश भारतवासी से मिलकर जब भी लौटना होता, मैं दो घंटे पहले उनके घर से निकल जाता था। वे मुझे कहते कि आप इतनी जल्दी क्यों कर रहे हैं। लेकिन मेरे पाँवों पर चींटियाँ चढ़ने लगती थी। मेरी हथेलियों में पसीना होने लगता। दिल की धड़कन बढ़ जाती। मैं किसी हड़बड़ी में उनके पास से निकल जाता रहा। मुझे रेलवे स्टेशन पर दो घंटे इंतज़ार करना भला लगता था। छूट जाने की उदासी में होने के स्थान पर लंबी प्रतीक्षा में होना भला है।

फतेह सर, संजय और मैं जाने क्या बातें कर रहे थे। मुझे कोई बात याद नहीं आ रही कि हम क्या बातें कर रहे थे। एक अनुभूति याद है कि जैसे रेगिस्तान के लोग अलाव जलाकर बैठे हैं। दुनिया जहां जाना चाहती है, जाए। बस हम इसी तरह एक दूजे के होने के सुख से भरे बैठे रहें।

संजय को सामने की सीट पर बैठे एक सज्जन बार-बार इशारा कर रहे थे कि इस आदमी को कहो मेरी ओर देखे। संजय के बताने पर मैंने उनको देखा। मुझे पूछते हैं “मुझे पहचाना?”

मैं उनसे कहता हूँ “माफ कीजिये, मैंने आपको नहीं पहचाना”

वे अशोक चौधरी है। बैंक में मैनेजर हैं। साल सत्तासी में साल भर बाड़मेर पोस्टेड रहे थे। मुझसे उम्र में छह साल बड़े हैं। वे मेरे पिताजी के मित्र रहे हैं। मैं सोचकर मुसकुराता हूँ कि मैं भी पिताजी की तरह अपने से आधी उम्र के लड़कों का मित्र हूँ। ऐसा क्यों होता है? पैंतीस बरस पहले अशोक जी ने मुझे देखा था और रेल यात्रा में पहचान लिया। हमारी बातचीत के बीच उगते क्षणिक मौन में मैंने सोचा कि मैं अब शायद पिता की तरह दिखने लगा हूँ।

संजय खाने का पूछते हैं। हम एक कूपे में रेगिस्तानी भोजन की खुशबू से भर जाते हैं। रेखा भाभी जो कुछ स्वादिष्ट बनाकर लाई थी, सबमें प्रेम से बंट गया। फतेह सर, रूपेश, छगन, संजय और मैं ब्यालू में लग गए। हमारी क्षुधा और स्वाद का मेल मिलाप गहरे संतोष और आनंद की तरह उगा। सुगण बाई ने बाजरे की जो चार रोटियाँ भेजी थी, उनमें से दो, कच्चे प्याज के साथ जीम ली गई।

रेल केवल पटरियों पर नहीं चलती। कभी एक दूसरे की कमीज़ पकड़े बच्चों की तरह रेतीले बियाबाँ में हंसी बिखेरते हुए चलती है। कभी किसी की उदास आँखों में पानी की तरह चलती है। कभी किसी के दिल में इस तरह धड़कती हुई चलती है कि सारी दुनिया काँपने लगती है। कभी-कभी रेल समस्त दुखों उठाए हुए अंधेरी सुरंग से गुज़रती रहती है। ऐसी सुरंग जिसके भीतर से रोशनी का हिमकण उड़ चुका है।
क्रमशः 

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