भोपाल, दिल के कोने में भीगा सीला नाम है। [दो]
यायावरों और प्रेमियों की ज़ुबान पर ना शब्द कम ही मिलता है। यायावर अजाने के प्रति आकर्षित रहते हैं, प्रेमी जो होगा देख लेंगे के भाव में बने रहते हैं। भोपाल शहर का नाम सुनकर रूपेश सोलंकी ने कहा “जो हुकुम। चलेंगे सर”
एक प्रेमी दीवाने के मुंह से हाँ सुनकर मैं आगत की यात्रा के प्रति थोड़ा सहज हुआ। इसी सहजता से मुस्कान आई। मुझे मुसकुराता देखकर रूपेश जी ने कहा “सर उज्जैन तो मेरा घर है। जब हम पाकिस्तान से शरणार्थी की तरह आए थे, सबसे पहले उज्जैन जाकर ही बसे। हमारा पूरा परिवार उज्जैन का वासी हो गया। पिताजी कुछ समय रहे फिर उनको रेत के धोरों की याद सताने लगी। वे एक क़स्बे को छोडकर बाड़मेर के रेतीले संसार में लौट आए।“
आंधियों से भरे दिल में कहीं पानी की महक जागी। तपती लू के स्थान पर पानी को छूकर आती हुई हवा का खयाल आया।
मैंने कहा “कल संजय सर आते हैं। उनसे बात करके आपको बताता हूँ।”
मैं उल्फ़त की दुकान तक लौट आया। पान के शौकीन लोग अपना बीड़ा बँधवाने में लगे थे। मास्टर नेमसा बाड़मेर के दर्जी समाज के अध्यक्ष हो चुके हैं। इस कारण वे समय पर कपड़े सिल कर देने लगे हैं।
कोई कलाकार आपको समय पर काम पूरा करके नहीं देता। समय पर देने से कला का मान घटता है। मिस्त्री समय पर घर का काम पूरा कर दें तो अच्छे राजमिस्त्री नहीं कहलाते। पुराने समय में घड़ीसाज़ समय पर घड़ी नहीं बनाकर देते थे। ताकि आपको समय की कीमत मालूम हो। फ़ोटो स्टूडिओ वाले दो चक्कर लगवाते थे। सबसे बड़े कलाकार कचहरी वाले होते हैं कि वे आपकी सात पुश्तों से चक्कर लगवाते है। काम कभी नहीं बनता।
आपने कालो थियु सै किताब पढ़ी है तो उसके आवरण पर जसाई रेलवे स्टेशन का चित्र है। ये हमारे प्यारे गुरुजी का खींचा हुआ है। गुरु एक पदवी है। इसका उम्र से कोई वास्ता नहीं है। जोशी समाज में पैदा हुआ बच्चा भी गुरु है। इसलिए अश्विनी जोशी को नेमसा गुरु कहते हैं। उलफ़त का उनके लिए एक अलग सम्बोधन है। मैंने उनका नाम ए जे के नाम से फ़ोन में सेव किया हुआ है।
नेमसा और गुरु साथ खड़े थे। मैंने कहा “मास्टर जी। एक सूट सिल देंगे क्या?”
पिताजी अपने कपड़ों के प्रति सचेत रहते थे। उन्होने सर्द मौसम में हमेशा सूट ही पहना। उनके पास कई ब्लेजर भी थे। वे अक्सर शर्ट को पेंट में टक इन करके रहते थे। मैं हमेशा उनके पहनावे के उलट छोटा कुर्ता सिलवाता। शर्ट को पेंट में खोंस कर नहीं चलता। लेकिन जब से पिता इस संसार से अनुपस्थित हुए, मैंने उनकी तरह कोट, ब्लेज़र सिलवाने आरंभ कर दिये थे। जाने क्यों।
नेमसा ने पूछा “दिल्ली जा रहे हैं?”
मैंने कहा “नहीं। इस बार एक ऐसा शहर है, जिसको कई बरस सोचा था। उस शहर से मिलूंगा तो थोड़ा कायदे से मिलना अच्छा होगा।“
इसके बाद सूरमा भोपाली का ज़िक्र स्वाभाविक रूप से आना ही था। लेकिन सूरमा भोपाली का चरित्र एक क्षेपक की तरह था। उसका आना और चले जाना क्षणिक था। किसी चलचित्र में कोई पात्र इस तरह उपस्थित हो कि वह न हो तो भी चलेगा। ये सुंदर बात होती है। ये संसार ऐसा ही है। हम हैं लेकिन हम न हों तो भी इस संसार की गति में कोई बाधा नहीं आती। क्षणभंगुर जीवन स्मृति होते देर नहीं लगाता। स्मृति मिटते हुए देर नहीं लगाती। कारोबार चलता रहता है।
मैं जोशी जी के साथ एक सुंदर कपड़ा ढूँढने चल पड़ा।
बाड़मेर की संकरी गलियों में बचते बचाते शहर की इकलौती झील नरगासर की ओर अश्विनी जी की बाइक जा रही थी। मैं पीछे बैठा था। अचानक नरगासर की सिग्नेचर स्मेल आई तो मेरा घ्यान टूटा। जोशी जी ने कहा “बस यहीं”
मैंने कहा “जोशी जी, अमर बकरों की गंध का घनघोर अभाव महसूस होता है।“
सारे अमर बकरे नरगासर से गायब हो चुके हैं। लेकिन अमरत्व को प्राप्त कुछ एक कभी-कभी शहर के होर्डिंग्स के आसपास मुसकुराते, हाथ जोड़े हुए दिखते हैं। वे चुनाव, किसी नेता के जन्म दिन या किसी प्रतिष्ठान के उदघाटन के अवसर पर उपस्थित होते हैं।
मुझे नहीं पता कि आप कभी बाड़मेर आए हैं या नहीं लेकिन इस क़स्बे की मोहब्बत में पड़ जाने के अनेक कारण हैं। उनमें एक नया कारण मुझे जोशी जी ने बताया। नरगासर के पास पानी पूरी वाले के यहाँ पुचके खाना।
मेरे बाएँ हाथ में रखी कागज की प्लेट में धरती का छोटा सा ऊपर टूटा हुआ आकार था। जिसमें एक झील बनी हुई थी। उसमें कुछ नावें तैर रही थी। मैंने उस छोटे संसार को मुंह में रख लिया। अचानक लगा कि भोपाल को थोड़ा चखा भी जा सकता होगा।
संजय आए तो हम महेश जी की चाय थड़ी पर जा बैठे। रेलवे स्टेशन के पास ये एक साफ सुथरी जगह है। जहां दिन में पाँच बार पोछा लगता है। बेंचों को खुशबूदार कीड़े मारने वाले तरल से धोया जाता है। छोटे मोढ़ों पर कीटनाशकों का स्प्रे किया जा है। इसके बाद रूम फ्रेशनर को दीवार पर पंखों के आगे सूं सूं की आवाज़ के साथ छिड़क दिया जाता है।
मौसम किसी पाँच सितारा चाय ढाबे जैसा हो जाता है। इस प्रक्रिया के दौरान रेगिस्तान के अधिकतर चाय प्रेमी अपनी चाय को हथेली से ढ़क देते हैं। जाने कौनसा रासायनिक द्रव चाय में मिल जाए और जान चली जाए। अभी घर भी जाना है। बच्चे भी इंतज़ार कर रहे हैं। अगले चुनाव में अपनी जाति के आदमी को वोट भी देना है। इस कारण वे टेढ़ा मुंह बना कर, पेशानी पर बल लाकर थड़ी के स्टाफ को देखते हैं। उनके देखने का अंदाज कहता है कि चाय पीने दो, ये पोंपले बंद करो।
संजय व्यास और मेरी निकटता के अनगिनत कारण हैं। उनमें एक संजय व्यास का अप्रतिम गद्य है। दूजा है हिन्द युग्म। तीजा आकाशवाणी में एक साथ नौकरी करना। चौथा हम दोनों लिख कर सुखी भर हो पाते हैं। हिन्द युग्म के किसी काम के नहीं हैं। किताबों का प्रचार नहीं करते। उनकी बिक्री के प्रति कोई मोह नहीं रखते। साहित्य के दूजे समारोहों और सम्मेलनों में नहीं जाते। बरस भर में एक बार पुस्तक मेला का चक्कर लगा आते हैं। बस।
हिन्द युग्म का साहित्य उत्सव बाड़मेर से आरंभ हुआ था। शैलेश भारतवासी मानते हैं कि किशोर चौधरी की किताब के साथ हिन्द युग्म की विधिवत शुरुआत होती है। हालांकि हिन्द युग्म मेरी किताब आने से बरसों पहले भी था। मुझे इस बात से अधिक फर्क नहीं पड़ता। ये केवल सम्मान भर की बात है। उनका बड़प्पन है। ये सोचकर मुस्कुरा देता हूँ।
मेरी किताब आने से पंद्रह बरस पहले यानी कोई चालीस बरस पहले संजय, अमित और मैं लेखक ही थे। नौवीं दसवीं में पत्रिकाओं में छप चुके थे। लेखक होने का चाव भीतर ही भीतर किसी मीठे कांटे की तरह रह रहकर चुभता था। आगे कॉलेज में हिन्दी साहित्य पढ़ते समय गुरु डॉ आईदान जी भाटी ने हमारे दिल में धँसे मीठे कांटे का सिर कलम कर दिया था। दौड़ो मत। पढ़ो, लिखो और खुश रहो। ये हमारे मन की बात थी। भले विद्वान गुरु का सानिध्य मिला।
मैं लेखक होने की जगह केवल अच्छा लिख कर सुखी होना चाहता था। अब भी यही चाहता हूँ।
“संजय सर क्या प्लान है?”
“मेरा थोड़ा अलग प्लान है लेकिन हम भोपाल में मिलते हैं”
क्रमशः
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