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दिनेश जोशी, आपकी याद आ रही है.

अब उस बात को बीस साल हो गए हैं. वे फाके के दिन थे. शाही समौसे और नसरानी सिनेमा की दायीं और मिलने वाली चाय के सहारे निकल जाया करते थे. उन्हीं दिनों के प्रिय व्यक्ति दिनेश जोशी कल याद आये तो वे दिन भी बेशुमार याद आये. मैं डेस्क पर बैठ कर कई महीनों से प्रेस विज्ञप्तियां ठीक करते हुए इस इंतजार में था कि कभी डेट लाइन में उन सबको भी क्रेडिट मिला करेगी, जो अख़बार के लिए खबरें इस हद तक ठीक करते हैं कि याद नहीं रहता असल ख़बर क्या थी.

हमारे अख़बार के दफ्तर में ग्राउंड फ्लोर पर प्रिंटिंग प्रेस और ऊपर के माले में एक हाल के तीन पार्टीशन करके अलग चेंबर बनाये हुए थे. एक में खबरों के बटर पेपर निकलते थे दूसरी तरफ पेस्टिंग, ले आउट और पेज मेकिंग का काम होता था. बाहर की तरफ हाल में रखी एक बड़ी टेबल पर तीन चार लोग, जो खुद को पत्रकार समझते थे, बैठा करते थे. मैं भी उनके साथ बैठ जाया करता था.

एक सांध्य दैनिक में काम करते हुए कभी ऐसे अवसर नहीं मिलते कि आप कुछ सीख पाएं, सिवा इसके कि हर बात में कहना "उसको कुछ नहीं आता". इसी तरह के संवादों से दिन बीतते जाते हैं. ऐसे अखबारों के हीरो क्राइम रिपोर्टर हुआ करते हैं. वे बलात्कार, छेड़-छाड़, अपहरण का प्रयास, या जानवरों के साथ इंसान का दुष्कर्म से जुड़ी खबरें खोजते हुए, पुलिस थानों में घूमते रहते हैं बाकी लोग जिन दुकानों के उदघाटन के विज्ञापन आये होते हैं. उनकी खबरें बनाने में दिन काट देते हैं. टेबलायड फार्म में छपने वाले अख़बार हमेशा लोकरंजन की सस्ती खबरों पर ही चला करते हैं, ये सच्ची बात नहीं है मगर वहां ऐसा ही था.

मुझे एक काम मिला कि सोनू खदान से निकलने वाले लाइम स्टोन पर जैसलमेर के संवाददाता बद्री भाटिया एक सीरीज लिखेंगे और मुझे उसको सही करना है. सत्रह कड़ियाँ लिखने के बाद एक सप्ताह बड़ी आपत्तिजनक ख़बर मिली. कुल मिला कर उसमे लिखा था कि न्यायालय का स्थगन आदेश तो कोई भी ला सकता है. दिनेश जोशी मुखिया थे तो उनको मैंने बताया कि ये कुछ ठीक नहीं लग रहा. खैर साहब, प्रबंधन ने वह ख़बर लिखवाई. जोशी जी की समझाईश फ़ैल हो गयी. ख़बर का शीर्षक था "स्टे तो गरीब की जोरू है जो चाहे सो ले आये" मेरे सीनियर जानते थे कि इसका अंजाम क्या है ?

मूल ख़बर पर प्रबंधन ने छापने का आदेश लिखा और अपने हस्ताक्षर किये. मेरे हाथ से लिखे आलेख को तुरंत कम्प्युटर कक्ष से मंगवा कर दिनेश जोशी ने मेरे ही सामने जला डाला. मूल आलेख वे अपने बैग में रख कर घर ले गए. मैं उस अख़बार को छोड़ कर चला गया फिर कुछ दिनों बाद सूचना और प्रसारण मंत्रालय की एक मिडिया यूनिट में भारत सरकार का नौकर हो गया.

उस ख़बर पर राजस्थान उच्च न्यायालय ने कड़ा फैसला सुनाया. पत्रकारों को कारावास की सजा दे दी गई. मेरे लिए ये अप्रत्याशित तो नहीं मगर कोई अच्छी खबर नहीं थी. खबरों के प्रकाशन के लिए उत्तरदायी दिनेश जोशी ने न्यायालय के समक्ष वास्तविक ख़बर का परचा रखा, जिसमे प्रबंधन के निर्देश थे. मैंने सुना कि बद्री भाटिया ने कहा, भाई मेरी कोई नौकरी तो है नहीं मैं तो छः महीने सेन्ट्रल जेल में काटना बेहतर समझूंगा... प्रबंधक शायद अपील लेकर आगे गए थे.

आखिरी बार की मुलाकात के समय जोशी जी भास्कर में कॉपी एडिटर थे... मगर आज बीस साल बाद भी उनकी याद आती है और याद आता है कि सीखने को हर जगह मिलता है.

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