चाय का प्याला लेकर घर के सबसे ऊपरी कमरे में चला आया हूँ। आसमान पर कुछ एक बादलों के फाहे हैं। मौसम कुछ ऐसा कि जैसे कुछ बरस ही जाए तो बेहतर। मैं इन दिनों खोये हुये होने के दुख से बाहर से खोये हुये होने के सुख की ओर निष्क्रमण चाहता हूँ। जगह वही रहे मगर हाल बदल जाने की उम्मीद हो। जैसे तुम्हारा हाथ दुख में भी नहीं छूटा और सुख के पलों में ऐसी कामना कौन कर सकता है कि तुम्हारा हाथ छूट जाए। मेरे दफ्तर जाने का समय सुबह नौ बजकर पचास मिनट का था। उस वक़्त मैं बालकनी में लेटा हुआ चिड़िया की चोंच वाले तिनके को और कभी बिजली के तार पर सुस्ताती हुई गिलहरी को देख रहा था। उस वक़्त के बाद मुझे बारह बजे दफ्तर जाना चाहिए था। लेकिन मैंने पाया कि उमस ज्यादा है और पत्ता गोभी को बच्चे पसंद नहीं करते इसलिए आभा के साथ खड़ा होकर बेसन के गट्टे छौंक लेने के लिए प्याज और मिर्च काटता रहा। फिर मैं अगर दो बजे भी पहुँच सकता तो भी दफ्तर मुझे बख़ुशी स्वीकार लेता। लेकिन मैं तब भी वाशरूम में लगी खिड़की से बाहर दिखती हुई जाल पर बैठी एक चिड़िया को देख कर सोचता रहा कि काश कोई मुझे सज़ा देकर इस तरह सलाखों क...
[रेगिस्तान के एक आम आदमी की डायरी]