कोई ठौर न थी न कोई ठिकाना था इसलिए पंछी ने अपने पंखों को किसी वलय की तरह बनाया और एक ही गुलाची में समा गया खुद के भीतर। वहाँ असीम जगह थी। वहाँ कुछ भी मुमकिन था। वहाँ इस छोटी पड़ती हुई दुनिया से घबराये हुये लोगों के लिए अनगिनत दुनिया बसाये जा सकने जितनी जगह थी। दूर दूर तक देखो तो असमाप्य, दीर्घ और जटिल संसार। सोचो तो, सब कुछ किसी नाशवान प्रेत की तरह राख़ होकर कदमों में गिर पड़े। यही वह जगह है जहां पहुँचने का रास्ता किसी बौद्ध को पहली बार बताया गया होगा।
मैंने अपने दुखों को उलट पुलट कर सुखा दिया, उसी महबूब की धूप में, जिसके कारण दुख होने का भ्रम मुझे घेरे हुये था। मैंने अथाह शांति के समंदर में डूब जाना चाहा मगर डूब न सका कि मैं खुद उसी पर बहने लगा। मैंने सोचा कि चुप्पी के सघन जंगल में झौंक दूँ खुद को और पाया कि मैं सुन रहा हूँ पंछियों के गीत। जो मैं सुन न सका था। कुदरत के बेजोड़ गान के वृंद में सभी चीज़ें शामिल थी। हर वह चीज़ जिसे आप देख या महसूस कर पाये हो कभी भी...
अचानक एक साफ आवाज़ फिर से सुनी मैंने- तुमने इस तरह चूमना कहाँ सीखा है।
रेल के पहियों के शोर में, मैं सोचता रहा आखिर एक बीज को कौन सिखाता है, चटक जाना। कि हम सभी की कुंडली में लिखे हुये शाश्वत कर्म। मैं उनींदा देखता हूँ खिड़की से बाहर और मैं सोचता हूँ कि क्यों नहीं हो तुम? फिर कोई गरम लू का झौंका बना देता है मेरे दिल पर रेगिस्तान का टैटू सुनहरी रेत के रंग का। मैं तुम्हें दिखाना चाहता हूँ। मगर जाने क्यों नहीं हो तुम....
दुख है?
नहीं बस एक कोलाहल है। उन अक्षरों का जिन से नहीं बनता कोई नाम मुकम्मल।
* * *
आँखों से उतरता
तनहाई की दरारों में खो जाता है।
किसी पुरानी सुरमादानी के
स्याह किनारे जैसी
नाज़ुक अंगुलियों पर लहरों की भंवरें
लिखती है कोई शाम उदासी
सब कुछ, हाँ सब कुछ, मिट जाने से पहले।
* * *
चीज़ें अपने आप चटक रही हैं
ना तुम्हारी स्मृति में
ना मेरी प्रतीक्षा को देखकर।
किसी से न कहो
कि ग़म,
जो है ख़ालिस तुम्हारी अपनी चीज़
अगले कुछ वक़्त में हो जाएगी गलत।
बस एक
इस घड़ी मुश्किल है
देखना तुम्हारा हाथ छूटते हुये
चाहे वह जैसा भी है
सत असत के रंगों से भरा
हल्के भारी शब्दों से सना।
बस ये जो एक तिल हैं न
यही बचा है खुशी की अमिट निशानी
देह के पूरे रोज़नामचे में।
हाँ मगर देखो, चीज़ें चटक रही हैं अपने आप।
* * *
ना तुम्हारी स्मृति में
ना मेरी प्रतीक्षा को देखकर।
किसी से न कहो
कि ग़म,
जो है ख़ालिस तुम्हारी अपनी चीज़
अगले कुछ वक़्त में हो जाएगी गलत।
बस एक
इस घड़ी मुश्किल है
देखना तुम्हारा हाथ छूटते हुये
चाहे वह जैसा भी है
सत असत के रंगों से भरा
हल्के भारी शब्दों से सना।
बस ये जो एक तिल हैं न
यही बचा है खुशी की अमिट निशानी
देह के पूरे रोज़नामचे में।
हाँ मगर देखो, चीज़ें चटक रही हैं अपने आप।
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