हम चल सकते थे रेगिस्तान की बालू पर और फिर थक जाने पर लेट सकते थे ऐसे कि कोई रूई का धुनका ले रहा हो झपकी। रेत के बिस्तर पर रेत से ही सना हुआ। मगर हासिल सिर्फ आवाज़ के टूटे रेशे, तनहाई के भारी पर्दे। एक उम्मीद से जगना और एक उदासी से सो जाना। इस अप्रिय चुप्पी में एक डेज़र्ट मॉनिटर ने कच्ची दीवार से सर उठा कर रेगिस्तान की छत पर छाए हुये बादलों को सलामी दी है। एक टिटहरी अपने नन्हे बच्चे के पीछे चलती हुई, कबीर की वाणी गा रही है- 'हिरना समझ बूझ वन चरना।'
मैं बालकनी से देखता हूँ कि मानसून के आने से पहले की इस सुबह में डेज़र्ट मॉनिटर उसी रास्ते पर बढ़ गयी है। जिस पर उस एक शाम के बाद मैंने घबरा कर चलना छोड़ दिया था।
रात एक सपना कनेर की लचीली टहनी सा मेरी पीठ पर दस्तक देता रहा। जाने क्या था, किसे क्या चाहिए था मालूम नहीं। याद का माँजा इतना कच्चा है कि कोई प्रॉपर्टी, कोई सिचुएशन, कोई डायलॉग या कोई फील पक्का पक्का लिखा ही नहीं जा रहा। अच्छा कि मैं भूल गया, कि याद नहीं, कि कुछ था इतना काफी है। कि रात गुज़र गयी है। कई दिनों से आंधियों का शोर था, आज की सुबह खामोशी है, उमस है और एक अभी अभी एक बारिश की फुहार आई है।
हम गुज़र कर कहाँ तक जायेंगे? उस रास्ते पर बाद हमारे कौन सोचेगा कि बीते हुये वक़्त की किताब में कितने चेहरे थे। ये वक़्त फ़ानी है। ये दुनिया कोई कारोबार है। हम दिहाड़ी मजदूर की तरह सर पर दस ईंटें उठाए हुये ज़िंदगी को तामीर किए जा रहे हैं। रोज़ इस तरह हम उचक कर जा बैठते हैं अगली टहनी पर मगर तन्हा।
रसोई में बज रहे एफएम से सुरों में ढली आवाज़ आ रही है- तेरे नाम का दीवाना तेरे घर को ढूँढता है...