पिछले कुछ दिनों से बादलों की शक्ल में फरिश्ते रेगिस्तान पर मेहरबान हो गए थे। उन्होने आसमान में अपना कारोबार जमाया और सूखी प्यासी रेत के दामन को भिगोने लगे। हम सदियों से प्यासे हैं। हमारी रगों में प्यास दौड़ती है। हमने पानी की एक एक बूंद को बचाने के लिए अनेक जतन किए है। हमारे पुरखे छप्पन तौला स्नान करते आए हैं। छप्पन तौला सोना होना अब बड़ी बात नहीं रही। लेकिन छप्पन तौला पानी से रेगिस्तान के एक लंबे चौड़े आदमी का नहा लेना, कला का श्रेष्ठ रूप ही है। वे लोग इतने से पानी को कटोरी में रखते और बेहद मुलायम सूती कपड़े को उसमें भिगोते। उस भीगे हुये कपड़े से बदन को पौंछ कर नहाना पानी के प्रति बेहिसाब सम्मान और पानी की बेहिसाब कमी का रूपक है।
बादल लगातार बरसते जाते हैं और मैं सोचता हूँ कि काश कोई धूप का टुकड़ा दिखाई दे। मेरी ये ख़्वाहिश चार दिन बाद जाकर पूरी होती है। चार दिन बरसते हुये पानी की रिमझिम का तराना चलता रहा। इससे पानी के प्यासे लोग डर गए। उनका जीना मुहाल हो गया। गांवों में मिट्टी के बने कच्चे घर हैं। उनमें सीलन बैठती जा रही थी। कुछ क़स्बों में हवेलियाँ हैं। पुराने वक़्त की निशानियाँ। सदियों पुरानी पेढ़ियाँ हैं। भूल भुलैया जैसी तंग घुमावदार गलियों में बने हुये घर हैं। इन सब में लोग रहते हैं। वे सब लोग इस तरह के सीले मौसम के बने रहने से डरते जाते हैं। गाँव के किसान अपनी खेती से डरते हैं। रेगिस्तान जो पानी का प्यासा है पानी से डर जाता है।
रेगिस्तान के लोगों का ये डर अमेरिका में बजट को लेकर राजनीतिक गतिरोध के चलते करीब अट्ठारह साल बाद पहली बार सरकारी विभागों में कामकाज ठप हो जाने से बड़ा डर था। जबकि वह दुनिया का सबसे ताकतवर देश है। हम सब बड़े घर के संकट को देखकर खुद को दिलासा देते हैं कि उनका भी ये हाल हुआ तो हम लोगों की बिसात क्या है। मैं देखता हूँ कि मीडिया खबरों के ऐसे शीर्षक देता है जैसे अमेरिका दिवालिया हो गया है। वह साफ बात बताता ही नहीं है। वह पाठक और दर्शक को कभी समझाता नहीं कि ये माजरा क्या है। मैं कुछ बातें टटोलता हूँ तो मालूम होता है कि यह संकट मुख्यरूप से राष्ट्रपति बराक ओबामा के महत्वाकांक्षी स्वास्थ्य सुरक्षा कार्यक्रम पर खर्च को लेकर विपक्षी रिपब्लिकन एवं सत्तारूढ डैमोक्रेट सांसदों के बीच घरेलू मतभेद के चलते खड़ा हुआ है। इस बार दोनों ओर से किसी पक्ष के अपने रूख से न झुकने का फैसला किया हुआ है। इसके कारण राष्ट्रपति भवन को आदेश जारी करना पड़ा कि संघीय सरकार की एजेंसियों का कामकाज बंद किया जाता है। इस आदेश से हजारों सरकारी कर्मचारियों को फिलहाल अवकाश पर जाना पड़ा है और कई सेवाओं में कटौती कर दी गई है।
रेगिस्तान के लोगों का ये डर अमेरिका में बजट को लेकर राजनीतिक गतिरोध के चलते करीब अट्ठारह साल बाद पहली बार सरकारी विभागों में कामकाज ठप हो जाने से बड़ा डर था। जबकि वह दुनिया का सबसे ताकतवर देश है। हम सब बड़े घर के संकट को देखकर खुद को दिलासा देते हैं कि उनका भी ये हाल हुआ तो हम लोगों की बिसात क्या है। मैं देखता हूँ कि मीडिया खबरों के ऐसे शीर्षक देता है जैसे अमेरिका दिवालिया हो गया है। वह साफ बात बताता ही नहीं है। वह पाठक और दर्शक को कभी समझाता नहीं कि ये माजरा क्या है। मैं कुछ बातें टटोलता हूँ तो मालूम होता है कि यह संकट मुख्यरूप से राष्ट्रपति बराक ओबामा के महत्वाकांक्षी स्वास्थ्य सुरक्षा कार्यक्रम पर खर्च को लेकर विपक्षी रिपब्लिकन एवं सत्तारूढ डैमोक्रेट सांसदों के बीच घरेलू मतभेद के चलते खड़ा हुआ है। इस बार दोनों ओर से किसी पक्ष के अपने रूख से न झुकने का फैसला किया हुआ है। इसके कारण राष्ट्रपति भवन को आदेश जारी करना पड़ा कि संघीय सरकार की एजेंसियों का कामकाज बंद किया जाता है। इस आदेश से हजारों सरकारी कर्मचारियों को फिलहाल अवकाश पर जाना पड़ा है और कई सेवाओं में कटौती कर दी गई है।
इससे पहले, इस तरह की स्थिति उन्नीस सौ पिचानवें छियानवें में पैदा हुई थी। अमेरिका में कामकाज बंद रहने का मतलब है कि सरकारी कार्यालयों में कागजी कार्रवाई धीमी पड़ जाएगी और संघीय सरकार के लाखों कर्मचारियों को घर बैठा दिया जाएगा। उन्हें इस दौरान वेतन नहीं मिलेगा। केवल आपात सेवाएं हीं जारी रखी जाएंगी। इस तरह अमेरिका पर जो संकट है वह उनके अंदरखाने का मामला है। ऐसा मामला कि कभी भी संसद बजट पास कर सकती है और कभी भी अमेरिका फिर से दुनिया के देशों में शांति बहाल करने के अपने प्रिय काम पर निकाल सकता है। लेकिन हम रेगिस्तान के लोगों के पास इस लगातार होती बारिश से बचने का कोई उपाय हैं। ये बेहिसाब बरसात एक रूठे हुये सेठ द्वारा बार बार मांग रहे भिखारी के मुंह में जबरन रोटियाँ ठूँसते जाने जैसा है। साँवरिया गिरधारी कोई होता नहीं है कुदरत अपना काम करती है। वरना रेगिस्तान से जब कोई प्यासी पुकार उठी होती तभी उतना ही पानी बरसा होता।
इधर एक नयी बात पर चर्चा चल पड़ी है कि अब हमको वोट देते हुये ये बताने का अधिकार भी मिल सकता है कि हमें हमारे नेता पसंद नहीं है। अगले माह होने वाले विधानसभा चुनाव के दौरान जो मतदाता चुनाव मैदान में उतरे किसी भी उम्मीदवार को वोट नहीं देना चाहेंगे, उनके लिए इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन में एक अलग बटन होगा। इस बटन को दबाकर मतदाता किसी को भी वोट नहीं देने के विकल्प का उपयोग पूरी गोपनीयता कायम रखते हुए कर सकेंगे। इस बटन का नाम ‘‘नोटा’’ रखा गया है। ये नेताओं को किसी सोटे की तरह भी लग सकता है। उच्चतम न्यायालय ने हाल ही में अपने एक निर्णय में भारत निर्वाचन आयोग को ईवीएम के मतदान-पत्र ‘नोटा बटन’ उपलब्ध कराने की व्यवस्था करने के निर्देश दिए थे। इस तरह की खबरों को पढ़ते हुये मुझे उन खास तरह के लोगों की याद आती है कि दुनिया में हर चीज़ की कीमत होती है। इसलिए किसी भी चीज़ को खराब नहीं करना चाहिए। हमारे यहाँ मतदान के के समय बहुत सारे मतदाता आखिरी समय में अपना मन बदल लेते हैं। इसलिए कि उनको लगता है वे जिसको वोट देने जा रहे हैं वह जीतेगा नहीं और वोट खराब हो जाएगा। अब को नोटा आएगा वह तो पक्के हिसाब से वोट की खराबी जैसा लग सकता है। लेकिन इस तरह के प्रावधान उन मतदाताओं के लिए हरहस का विषय हो सकते हैं जिनको नेताओं से प्रेम न होने का कारण वोट करने में रुचि न थी।
इधर एक नयी बात पर चर्चा चल पड़ी है कि अब हमको वोट देते हुये ये बताने का अधिकार भी मिल सकता है कि हमें हमारे नेता पसंद नहीं है। अगले माह होने वाले विधानसभा चुनाव के दौरान जो मतदाता चुनाव मैदान में उतरे किसी भी उम्मीदवार को वोट नहीं देना चाहेंगे, उनके लिए इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन में एक अलग बटन होगा। इस बटन को दबाकर मतदाता किसी को भी वोट नहीं देने के विकल्प का उपयोग पूरी गोपनीयता कायम रखते हुए कर सकेंगे। इस बटन का नाम ‘‘नोटा’’ रखा गया है। ये नेताओं को किसी सोटे की तरह भी लग सकता है। उच्चतम न्यायालय ने हाल ही में अपने एक निर्णय में भारत निर्वाचन आयोग को ईवीएम के मतदान-पत्र ‘नोटा बटन’ उपलब्ध कराने की व्यवस्था करने के निर्देश दिए थे। इस तरह की खबरों को पढ़ते हुये मुझे उन खास तरह के लोगों की याद आती है कि दुनिया में हर चीज़ की कीमत होती है। इसलिए किसी भी चीज़ को खराब नहीं करना चाहिए। हमारे यहाँ मतदान के के समय बहुत सारे मतदाता आखिरी समय में अपना मन बदल लेते हैं। इसलिए कि उनको लगता है वे जिसको वोट देने जा रहे हैं वह जीतेगा नहीं और वोट खराब हो जाएगा। अब को नोटा आएगा वह तो पक्के हिसाब से वोट की खराबी जैसा लग सकता है। लेकिन इस तरह के प्रावधान उन मतदाताओं के लिए हरहस का विषय हो सकते हैं जिनको नेताओं से प्रेम न होने का कारण वोट करने में रुचि न थी।
एक दिन हो सकता है भ्रष्टाचार में डूबे हुये उम्मीदवारों के मुक़ाबले नोटा को ज्यादा वोट पड़ जाएँ। वह भारतीय मतदाता के विवेक और बुद्धिमत्ता का उदाहरण होगा। हम खराब चीजों से बचकर चलने के आदि हैं उनको बदलने की जहमत नहीं उठाते हैं। ये एक नयी शुरुआत है। हमें अपने मत का मोल पहचान कर स्वच्छ, निर्भीक और समाजसेवी उम्मीदवार को चुनना चाहिए अगर कोई ऐसा उम्मीदवार नहीं है तो हमारे पास एक नोटा है। ज्ञान और धर्म वाले को उर्दू ज़ुबान में ज़ाहिद कहते हैं। ऐसे ही लोगों के बारे में शकील बदायूँनी साहब ने कहा है। ज़ाहिदों को किसी का खौफ़ नहीं/सिर्फ काली घटा से डरते हैं।