फोटो के निगेटिव जैसे फिल्म के सबसे छोटे फ्रेम में जादू के संसार की एक स्थिर छवि कायम रहती थी। गली में अंधेरा उतरता तो उसे लेंपपोस्ट की रोशनी में देखा जा सकता था और दिन की रोशनी में किसी भी तरफ से कि नायक नायिका हर वक़्त खड़े रहते थे उसी मुद्रा में।
ये फ्रोजन मोमेंट बेशकीमती ख़जाना था। बस्ते में रखी हुई न जाँचे जाने वाली कॉपी में से सिर्फ खास वक़्त पर बाहर आता था। जब न माड़साब हो न कोई मेडम, न स्कूल लगी हो न हो छुट्टी और न जिंदगी हो न मृत्यु। सब कुछ होगया हो इस लोक से परे।
रास्ते की धूल से दो इंच ऊपर चलते हुये। पेड़ों की शाखाओं में फंसे बीते गरम दिनों के पतंगों के बचे हुये रंगों के बीच एक आसमान का नीला टुकड़ा साथ चलता था। इसलिए कि ज़िंदगी हसरतों और उम्मीदों का फोटो कॉपीयर है। बंद पल्ले के नीचे से एक रोशनी गुज़रती और फिर से नयी प्रतिलिपि तैयार हो जाती।
रात के अंधेरे में भी नायक और नायिका उसी हाल में खड़े रहते। ओढ़ी हुई चद्दर के अंदर आती हल्की रोशनी में वह फ्रेम दिखता नहीं मगर दिल में उसकी एक प्रतिलिपि रहती। वह अपने आप चमकने लगती थी।
बड़े होने पर लोग ऐसे ही किसी फ्रेम में खुद कूद पड़ते हैं। आँसू भरी आँखें लिए फ्रीज़ हो जाते हैं। उस वक़्त तक के लिए जब तक कच्चे रास्तो पर कोई डामर न कर दे। पेड़ों की शाखाओं को मशीन छांट न दे। आसमान और आँख के बीच गगनचुंबी इमारतें खड़ी न हो जाए। जब तक कि ठोकर मार कर चला न जाए महबूब या ज़िंदगी का फोटो कॉपीयर नष्ट न हो जाए।
प्रेम असल में एक लंबी ज़िंदगी का सबसे छोटा फ्रेम है।
[जिन बातों पर तुमको यकीन नहीं है, वे सब बातें मैं वापस लेता हूँ। मैं मुकर जाता हूँ। मुझ पर आरोपित कर दो जो भी करना है। दो कहानियाँ पूरी करके देनी है और दिल इस काम में लग नहीं रहा।]
* * *
धूप एक तलब नहीं मजबूरी है और मुसाफ़िर चलता रहता है रास्तों पर तन्हा। कि सिले हुये हैं उसके होठ रेत के पैबंद से और जाने कौन कब से गैरहाज़िर है ज़िंदगी से।
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किसी के पास नहीं है दुखों का मरहम मगर सबके पास है इस लम्हे को खुशी से बिता देने का सामान।
जैसे मैंने तुम्हारे बारे में सोची एक ज़रा सी बात और मुस्कुरा उठा।
ये फ्रोजन मोमेंट बेशकीमती ख़जाना था। बस्ते में रखी हुई न जाँचे जाने वाली कॉपी में से सिर्फ खास वक़्त पर बाहर आता था। जब न माड़साब हो न कोई मेडम, न स्कूल लगी हो न हो छुट्टी और न जिंदगी हो न मृत्यु। सब कुछ होगया हो इस लोक से परे।
रास्ते की धूल से दो इंच ऊपर चलते हुये। पेड़ों की शाखाओं में फंसे बीते गरम दिनों के पतंगों के बचे हुये रंगों के बीच एक आसमान का नीला टुकड़ा साथ चलता था। इसलिए कि ज़िंदगी हसरतों और उम्मीदों का फोटो कॉपीयर है। बंद पल्ले के नीचे से एक रोशनी गुज़रती और फिर से नयी प्रतिलिपि तैयार हो जाती।
रात के अंधेरे में भी नायक और नायिका उसी हाल में खड़े रहते। ओढ़ी हुई चद्दर के अंदर आती हल्की रोशनी में वह फ्रेम दिखता नहीं मगर दिल में उसकी एक प्रतिलिपि रहती। वह अपने आप चमकने लगती थी।
बड़े होने पर लोग ऐसे ही किसी फ्रेम में खुद कूद पड़ते हैं। आँसू भरी आँखें लिए फ्रीज़ हो जाते हैं। उस वक़्त तक के लिए जब तक कच्चे रास्तो पर कोई डामर न कर दे। पेड़ों की शाखाओं को मशीन छांट न दे। आसमान और आँख के बीच गगनचुंबी इमारतें खड़ी न हो जाए। जब तक कि ठोकर मार कर चला न जाए महबूब या ज़िंदगी का फोटो कॉपीयर नष्ट न हो जाए।
प्रेम असल में एक लंबी ज़िंदगी का सबसे छोटा फ्रेम है।
[जिन बातों पर तुमको यकीन नहीं है, वे सब बातें मैं वापस लेता हूँ। मैं मुकर जाता हूँ। मुझ पर आरोपित कर दो जो भी करना है। दो कहानियाँ पूरी करके देनी है और दिल इस काम में लग नहीं रहा।]
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धूप एक तलब नहीं मजबूरी है और मुसाफ़िर चलता रहता है रास्तों पर तन्हा। कि सिले हुये हैं उसके होठ रेत के पैबंद से और जाने कौन कब से गैरहाज़िर है ज़िंदगी से।
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चुप्पी, अबोला नहीं है। न बतलाना या आवाज़ न देना तिरस्कार नहीं है।
मेरे भीतर कुछ टूट जाता है लेकिन क्या करूँ कि शिकायत करने की आदत कुदरत ने दी नहीं। हम सबके भीतर कुछ न कुछ टूटता रहता है। जैसे आज ऑफिस जाते समय रास्ते के नीम से पीली पत्तियाँ झड़ रही थी। ये उनका खत्म हो जाना नहीं वरन पूर्ण हो जाना था। इसी तरह कई बार संवाद का कोई हिस्सा पूरा हो जाता है। उसके बाद निर्विकार चुप्पी होती है। चुप्पी ही निर्विकार हो सकती है इसलिए कि संवाद खूब सारे विकारों से ग्रसित होते हैं। अच्छा है कि चुप्पी है, अच्छा है कि ये अबोला नहीं है।
प्रेम सिर्फ अनुभूत करने के लिए बना है।
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किसी के पास नहीं है दुखों का मरहम मगर सबके पास है इस लम्हे को खुशी से बिता देने का सामान।
जैसे मैंने तुम्हारे बारे में सोची एक ज़रा सी बात और मुस्कुरा उठा।
[Water color by Kris Parins]