दिल के कबाड़खाने में

जोधपुर रेलवे स्टेशन से सोजती गेट और वहां कुंज बिहारी मंदिर की ओर के संकरे रास्ते पर नगर निगम के ट्रेक्टर अपनी हैसियत से ज्यादा की सड़क को घेर कर खड़े होंगे. नालियों से बाहर सड़क पर बह रहे पानी से बचते हुए दोनों तरफ की दुकानों पर हलकी निगाह डालते हुए चलिए. एक किलोमीटर चलते हुए जब भी थोड़ी चौड़ी सड़क आये तो उसे तम्बाकू बाज़ार की गली समझ कर दायीं तरफ मुड़ जाइए. ऐसा लगेगा कि अब तक ऊपर चढ़ रहे थे और अचानक नीचे उतरने लगे हैं. कुछ ऐसी ही ढलवां पहाड़ी ज़मीन पर पुराना जोधपुर बसा हुआ है. तम्बाकू बाज़ार एक भद्र नाम है. घास मंडी से अच्छा. गिरदीकोट के आगे बायीं तरफ खड़े हुए तांगे वाले घोड़ो की घास से इस नाम का कोई वास्ता नहीं है. ये उस बदनाम गली या मोहल्ले का नाम है जहाँ नगर की गणिकाएँ झरोखों से झांकती हुई बड़ी हसरत से इंतज़ार किया करती थीं. त्रिपोलिया चौराहे को घंटाघर या सरदार मार्केट को जोड़ने वाली सड़क तम्बाकू बाज़ार है. नयी सड़क और त्रिपोलिया बाज़ार के बीच की कुछ गलियां घासमंडी कहलाती रही है. घासमंडी और तम्बाकू बाज़ार के बीच एक सड़क का फासला है जिसको 'सिरे बाज़ार' कहा जाता है.ऐसी ही ढलवां, संकड़ी और टेढ़ी मेढ़ी गलियों में घरों के आगे बने चौकों पर दल्लों की निगाहें बदन की भूख के मारों के लिए गली के आर पार देखती रहती थी.

हमें शर्म आती थी. अब भी आती है. इसलिए घास मंडी जैसा शब्द नहीं बोलते. हमें उस इलाके को तम्बाकू बाज़ार कहते हुए अच्छा लगता है. अब वे गणिकाएँ शहर के बाहरी हिस्सों में चली गयी हैं. यहाँ से गुज़रते हुए आपको सिर्फ तम्बाकू की गंध आएगी. ये खुशबू इसलिए है कि आप छींक लें या फिर मेरे जैसे आदमी इसे सूंघने के लिए ज़रा आहिस्ता चल सकें. मैंने साल सत्तासी में पहली दफ़ा तम्बाकू का इस्तेमाल किया था. उसके बाद ये प्यार सालों साल चलता रहा. इतना चला कि डॉक्टर ने कहा देखिये आपके फेंफडों में काला टार जम चुका है. इस हाल में आपके फेंफडे कितने दिन तक ये काम करेंगे इसकी कोई गारंटी नहीं है. मैं हांफ जाता था. चलते हुए, बोलते हुए और बिना कुछ किये हुए भी. साल दो हज़ार छः की एक सुबह पापा ने कहा किशोर साहब बुरी आदतें छोड़ने के लिए हर दिन शुभ दिन है. उन दिनों विल्स नेविकट का पेकेट शायद चौबीस रुपये में आता था. मैंने जब इसे पीना शुरू किया था तब इसकी कीमत बारह रुपये हुए करती थी. अच्छा ऐसा करते हैं सिगरेट पीना छोड़ देते हैं. रोज़ के तीस रुपये बचा करेंगे. सेहत भी हो सकता है बेहतर होने लगे. तो मैंने उस प्यार को अलविदा कह दिया. हिसाब लगाऊं तो याद आता है कि कोई सात साल हो गए हैं किसी तरह के तम्बाकू को छुए हुए. एक रात मैंने सपना देखा. मैं बेहिसाब दीवानगी के साथ सिगरेट पी रहा हूँ. मैं चौंक कर उठ बैठा. मैंने अपनी अँगुलियों को सूंघा. वहां वह उत्तेजक गंध नहीं थी. प्यार को अलविदा कहने के बाद भी सपने में उसका लौट आना कोई नयी बात नहीं है.

मैं अक्सर जोधपुर आता हूँ तो पैदल ही इस शहर की तंग गलियों में भटकना ज्यादा पसंद करता हूँ. तम्बाकू बाज़ार वाली गली नीचे उतरते हुए गिरदीकोट पर ही ख़त्म होती है. इसे ज्यादातर लोग बोलचाल की भाषा में घंटा घर कहते हैं. घंटाघर गिरदीकोट के अन्दर बना हुआ है. वैसे ये सरदार बाज़ार है. घंटाघर के चारों ओर लगभग गोलाकार बाज़ार में दुकानें बनी हुई हैं. इनके आगे हाथ ठेले वाले खड़े रहते हैं. उनके भी आगे कुछ ज़मीन पर बैठकर सामान बेचने वाले. मेरे ताउजी इसी गिरदीकोट पुलिस चौकी में इंचार्ज हुआ करते थे. इसके बाद जब मैं अपने छोटे भाई मनोज के साथ जोधपुर विश्वविध्यालय में पढता था तब हम सिटी बस से कभी इस जगह तक आते थे. घंटाघर के पास खड़े होकर जोधपुर के किले को देखने का जो अतुल्य सुख है वह मुझे किसी और जगह से कभी नहीं मिला. यहाँ से ऐसा लगता है जैसे किले की प्राचीर से कोई एक बेहद छोटे से सुन्दर बाज़ार को देख रहा है. इसी दृश्य को मैंने किले के ऊपर जाकर भी देखा. ये अद्भुत है. लाजवाब है. नीले रंग के शहर के बीच एक लाल झाईं लिये हुए बाज़ार. परकोटे में घिरा कई सारे सोजत-मेड़तिया दरवाजों वाले इस शहर की ज़ुबान दिल फरेब है. तांगे वाले घोड़े की टापों को वक़्त का पहिया अभी तक कुचल नहीं पाया है. एक तरफ पेरिस की सड़कों जैसा हाल दिखाई पड़ता है कि पुलिस वाले सायरन की आवाज़ वाली मोटरसायकिल नई सड़क पर गश्त में लगी हुई है दूसरी तरफ रेगिस्तान के मजदूरों के बचे हुए घोड़े टप टप किये दौड़े जाते हैं. मैंने और मनोज ने इसी जगह पर पैदल चक्कर काटे और बाद में वह पुलिस ऑफिसर हुए तो जोधपर में पहली पोस्टिंग एसीपी सिटी रही. ये शहर की तंग गलियों वाला असल जोधपुर ही है जिसमें कभी भूरी जींस और सफ़ेद कमीज में घूमने वाला भाई खाकी वर्दी में नीली टोपी पहने घूमता रहा. मुहब्बत जिस शहर से हो वह अपने पास किसी न किसी तरीके से बुला लेता है.

गिरदीकोट के आगे की ढलान में पुलिस वाले धूप में खड़े थे. केमरा होता तो ये तस्वीर एक ऐसे नगर की यादगार बन जाती जो इक्कीसवीं सदी में भी भरे बाज़ार ऐसा दीखता है जैसे कोई अट्ठारहवीं सदी का का मंज़र है. मैं ज़रा ऊँचाई से देखता हूँ और मुझे मंदिर वाली प्याऊ के आगे इतिहास की गोद में बैठा हुआ जोधपर का एक सबसे पुराना चौराहा दीखता है. काल और क्षय से परे अपने पुरातन रूप में, नए चटक रंगों के साथ. यहीं एंटीक आइटम्स की दुकाने भी हैं. मैं एक दोस्त के इंतज़ार में सोचता हूँ कि सारा शहर ही एंटीक है क्या क्या न दिल में रख लो. पूर्वी टापुओं पर बसे हुए देशों में चलने वाले इको फ्रेंडली तीन पहिया वाहनों जैसा एक रिक्शा नई सड़क के किनारे पर खड़ा सवारियों का इंतजार करता है. सिटी बसें मौज में आई बछडियों की तरह बेढब भागी जाती हैं. लगता है कोई अब नीचे आया कि अब आया. खाकी वर्दी पहने कंडक्टर हर किसी को आखलिया चौराहे तक ले जाने को ज़िद में अड़ा रहता है. मैं अपनी दोस्त से कहता हूँ इस पुराने जोधपुर से सिर्फ प्रेम किया जा सकता है सुकून से बैठने के लिए किसी सीसीडी में चलते हैं.
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कल मेरे बेटे का जन्मदिन था. बीते हुए कल के दिन बहुत सारे प्यारे लोग जन्मदिन मनाते हैं. जैसे दुष्यंत की दो चाचियाँ, मेरा दोस्त संजय और सत्तावन साला नौजवान कवि कृष्ण कल्पित भी. दिल के कबाड़खाने में सिर्फ बरबादी ही नहीं कुछ अच्छे लोग और शहर भी बसे हुए हैं.