बेशक हम बहुत सारे वे काम नहीं कर पाते हैं जो हमारी फेहरिस्त में साफ़ दिखाई देते रहते हैं. क्यों? मैं इसी बात को सोचता हूँ. क्या बात है जो रोकती है और क्या बात है जो इसे किये जाने को ज़रुरी समझती है. अगर हमने वे काम नहीं किये तो क्या उनको दीवारों की तरह मौसमों के सितम सहते हुए बदरंग होकर हमारी फेहरिस्त में धुंधला पड़ जाना चाहिए. या पत्तों की तरह पीले पड़कर हमारी फेहरिस्त से झड़ ही न जाना चाहिए. वे काम मगर बने रहते हैं. जैसे कार्बन अपनी उम्र के इतने साल जी चुका होता है कि स्याह होने के कुदरती गुण की जगह हीरा बन कर चमकने लगता है. हम किस निषेध और किस लालच अथवा लाभ अथवा सुख के बीच की रस्साकशी में उलझे रहते हैं.
इसी उलझन में कल की शाम आहिस्ता उतर रही थी.
कहानियां हमारे अंदर अपना भूगोल उतारती है. मैं जो कुछ लगातार पढ़ रहा हूँ वहीँ की सब प्रोपर्टी मेरे आस पास आभासी रूप में उपस्थित थी. यानी थार के इस असीम रेगिस्तान के एक कोने में बैठे हुए मुझे बसंत के बाद के ठन्डे देश याद आ रहे थे. लग रहा था कि अब कोट समेट कर हाथ में लेकर चलने की शामें जा चुकी हैं.
दो दिन से रेगिस्तान के अलग अलग हिस्सों में दो से आठ इंच बरसात हुई है. मौसम में ठंडक है. भीगी हुई हवा चलती है. हवा में नमी की गंध, ज़रा से सीले कपड़े और हलकी हलकी बेखयाली. कोकटेल सी अनुभूतियों से भरी इस शाम में सत्रह साल की लड़की पास से गुज़रती है. “एक जवान लड़की” कहानी की इस सत्रह साला नायिका की आँखें सरगोशी की तरह बोलती है. वे कहती हैं मैं इस तरह मिस फिट क्यों हूँ? ये क्लब, शराबघर, जुआखाने मुझे जिस उपेक्षा से देखते हैं मैं उससे अधिक इनसे घृणा से भर जाती हूँ. ये जो बूढ़े लोगों की गन्दी निगाहें जब तरह मुझे घूरती है तब इनके भद्र और दुनिया के सबसे ज़हीन समाज की सूरत कितनी बद दिखाई देती है.
किशोर लड़कों के खाने पीने की जाहिली, बूढी जर्जर काया पर साटन के सब्ज़ लिबास पहने हुए जुए की आदतों से भरी हुई औरतें, सिगारों के धुएं को उलीचते जुआरी, शराब की मादक गंध के बीच लालची निगाहें... आह किस कदर इस शाम का रंग भद्दा सा जान पड़ता है. इस सत्रह साला लड़की की फेहरिस्त में लिखा हुआ है, तन्हाई चाहिए. तन्हाई जो इस सूची में शामिल है वह उसे नहीं मिलती. हम सबको भी वे सब चीज़ें कहाँ मिलती हैं जो हमारी सूची में शामिल होती हैं. न धुंधली होती हैं न मिट कर झड़ पाती हैं.
मैं मुस्कुराता हूँ. एक गहरी किन्तु इतनी संजीदा कि उजाले में भी न देखी जा सके वैसी मुस्कान. उस लड़की की आँखें ही नहीं उसकी पूरी ज़िंदगी नीले रंग से भरी हुई थी.
मुझे दोस्त कहते हैं इतनी उदास कहानियां क्यों लिखते हो? इन कहानियों को पढकर दुःख होता है. क्या हम इसलिए पढ़ें कि पढकर दुखी हो जाएँ. क्या आपका मंतव्य यही होता है कि पाठक को दुखी किया जाये. मैं निरुत्तर उनको पढता सुनता या देखता हूँ. कल जब कैथरीन मैन्सफील्ड की कहानियां पढ़ रहा था तभी एक कहानी ने इन सब बातों की याद दिलाई. संगीत का सबक, ये कहानी का शीर्षक है. शीर्षक से कुछ तो होता ही है. होता हर एक सर्द आह और दुआ से भी है. इसी तरह इस बेहतरीन कहानी में मुझे खूब आनंद होता है. ठन्डे गलियारों से गुज़रती हुई मिस मीडोज संगीत कक्षा की ओर जा रही होती है. कक्षा में वह कमसिन लड़कियों को एक बेहद उदास गीत सिखाती है. इसके समानांतर मिस मीडोज के गले को अपने प्रेमी के लिखे पत्र के शब्द फांसी की तरह कसते जाते हैं. हाँ मैं प्रेम में था. अब भी करता हूँ. करता ही रहूँगा... मगर हम साथ नहीं रह सकते. ऐसे अनगिनत वाक्य जिनमें एक तवील फ़साना है. एक डेड एंड है. उन शब्दों की स्मृति में आरोह के बाद मिस मीडोज लड़कियों को डांटती है कि उनका स्वर इतना ऊंचा क्यों है? वे क्यों नहीं इसे और गहराई की तरफ ले जाती. गहरे लंबे आलाप भरे दो शब्दों के बाद के चार शब्द किसी फुसफुसाहट की तरह. इस तरह मिस मीडोज के दुःख को कैथरीन मैन्सफील्ड बेहतरीन जुबां देती है.
अचानक !!
स्कूल प्रिंसिपल के पास एक तार आता है. प्रिंसिपल के कमरे में बैठी हुई मिस मीडोज की अंगुलियां काँप रही होती हैं, उनका चेहरा शर्म से लाल हो जाता है. वे कक्षा की ओर भागती है, बच्चियों को गहरे उदास स्वरों के लिए डपटती है. कहती हैं ज़रा हाई, या शायद कुछ ऐसा ही... उस तार में क्या लिखा होता है ये बताने की ज़रूरत नहीं है. मगर क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि ज़िंदगी जिस किसी के पास है वह उसे नादानी से हेंडल कर रहा है. हम नौसिखिए हैं, हमारे सीखने तक ये बीत जायेगी.
कैथरीन मैन्सफील्ड की कहानियां पढ़ना, प्यार करने जैसा है.