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फेसबुक ; क्व गच्छति

कल रात मैंने एक स्टेट्स लिखा था कि वे दिन कितने अच्छे थे जब हम फेसबुक पर दोस्ती के लिए अनगिनत फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजा करते थे. अब हम ऐसा नहीं करते हैं. मैंने देखा है कि लोग जल्दी जल्दी अपने एकाउंट को डीएक्टिवेट करते हैं. जल्दी जल्दी लौट कर आते हैं. चैट में लोग्ड-इन नहीं रहते. अजनबी प्रोफाइल को इस तरह देखते हैं जैसे किसी लिफाफे में एंथ्रेक्स के जीवाणु न आये हों. वे लगभग हर बात का उद्धेश्य सोचने लगते हैं.

मई दो हज़ार नौ में जब मैंने फेसबुक पर अपना एकाउंट बनाया था उन दिनों ये बड़ा खुला-खुला नया हरा मैदान था. जैसे दुनिया को नया अछूत चारागाह मिल गया हो. यहाँ लोग अटखेलियाँ करते हुए प्रसन्न रहते थे. यहाँ आकर बहुत सारे दोस्त जीवन की वास्तविक थकान को भूल कर ताज़ा हो जाते थे. अपनी पसंद के गीत, शेर-शायरी, विद्वानों की उक्तियाँ, फ़िल्मी गानों के लिंक और कविता-कहानियां की बातें अपने पूरे शबाब पर होती थीं. ऐसा लगता था मानो फेसबुक पर न आकर किसी भव्य रोमन थियेटर जैसी शानदार जगह पर आ गए हैं.

उन शुरूआती सालों में अभियक्ति ही असल खुशी थी. बाद के इन सालों तक आते आते निजता बचे रहना असल खुशी हो गया है.

उस समय को, बसे-बसाए घर वाले स्त्री पुरुषों के मजे मजे में किये गए प्रेम निवेदनों का स्वर्णकाल कहना कोई अतिश्योक्ति न होगी. स्माइलीज से मारी गयी आँखें, स्माइलीज से ही किये गए बोसे इतने सच्चे जान पड़ते थे कि हर कोई इस तंत्र और यन्त्र से बंधा रहने लगा. एक आस का दरिया सबके घर की खिड़की के पास बहने लगा. ज़रा इंटरनेट ऑन करो और दरिया अपनी रवानी में. जीवन के दुखों के उपचार का झरना. असाध्य रोगों के इलाज की आशा से भरा हुआ.

हम बहकावे में बहते गए. ये प्लेटफोर्म वास्तविक जीवन में दाखिल होने लगा. जितना आभासी कहने में मजा था उतना ही ये वास्तविक होकर असरदार हो गया था. कोई प्रेम करता तो प्रेम पहुँचता, कोई गाली देता तो गाली पहुँचती. ऐसा कुछ न था जिसे यहाँ किया हो और उसका कोई असर न आया हो. इसी तरह परिणाम मिलने का सिलसिला शुरू हो गया. उलझनें बढ़ने लगी. उन उलझनों से घबरा कर नई प्रोफाइल बना ली. उसमें उलझे तो और नयी बना ली. ऐसा करने वालों को कुछ श्रूड दोस्त गरियाते रहे. उनके गरियाने में संयम और शुचिता के पाठ होते थे. वे किसी सन्यस्त की तरह उपदेश देते थे. लेकिन बावरा मन कहीं सुनता है. वह अपनी चाल चलता रहा. इस चाल ने फेसबुक को जवानी की ओर धकेला.

आख़िरकार घर-परिवार, रिश्ते-नाते, सुख-दुःख और सब-कुछ अपने फेसबुकिया प्रिय के साथ बाँट लेने के बाद लगभग हर किसी ने अफ़सोस जताया कि चुनाव गलत था. अगले ने कहा चुनाव सही था तुम ही नीच निकले. प्यार से शुरू होने वाले प्रसंग हताशा, उदासी, टूटन और आत्मग्लानि जैसी अप्रिय स्थितियों तक पहुँच गए.

तो क्या फेसबुक पर किसी को फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजना, उसके साथ आत्मीय हो जाना, उसको मन का हाल कहना और अपने जीवन के कुछ पलों को बाँट लेना बुरा काम है? मैं जब आया था तब मुझे लगता था कि बड़ा अच्छा है. कितना अच्छा होता है न हमें बेशुमार लोग जानते हैं. वे हमारी सहजता, सरलता, सुंदरता, ज्ञान, कला, विवेक, ह्यूमर जैसे किसी एक कारण या बिना किसी कारण पसंद करते हैं.

तो  सबको खूब चाहा गया, खूब बातें भी बनी.

बातें बनने के बारे में आप जानते ही हैं कि फीडबैक किसी भी संचार का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा होता है. अगर फीड बैक न हो तो कम्युनिकेशन यानि संचार को अधूरा ही माना जाता है. नॉइज यानी शोर भी इसका ज़रुरी अंग है. फेसबुक पर कम्युनिकेशन की अवधारणा ने काफी सुगमता से काम किया. याहू चैट अविश्वसनीय था तो ऑरकुट ने उसे थोडा विश्वास के करीब खींचा. लेकिन फेसबुक का सभी तरह से अधिक सुचालक होना सामने आया. संचार में तेजी हुई. रिश्ते, दोस्तियां, दुश्मनियाँ, जलन, घृणा जैसे तत्वों ने अपनी महान यात्रायें की. प्रेम और उसकी परछाइयों का शोर देश-विदेश तक गूंजा.

इस गूँज का हाल ये हुआ कि मैंने दो-एक साल पहले एक अखबार में उमर अब्दुल्ला के वैवाहिक जीवन की टूटन पर लेख लिख डाला. जिन उमर को कभी न देखा न जाना, न उसके साये के पास से गुज़रे. वह साप्ताहिक परिशिष्ट में कवर स्टोरी थी. आपको अजीब लगेगा मगर ये सच है कि उस कहानी के सारे सूत्र इसी इंटरनेट के यूजर्स से मिले थे. बाकी जो कहानी के किरदारों का बेस बनाने को चाहिए था उसे मैंने विकीपीडिया से लिया था, जो संसार का एक असत्य ग्रन्थ है. विकिपीडिया की विश्वसनीयता संदेह के घेरे में हैं. इसलिए कि उसको अपडेट करने वाले हम ही हैं. जैसे मेरे बारे में अक्सर वे लोग भी अधिकारपूर्वक बात करते हैं जिन्होंने मुझे कभी देखा ही नहीं. ऐसे लोग इसे अपडेट भी कर सकते हैं.

मैं अपने इस बचकाने पर शर्मिंदा हूँ मगर ज्यादा शर्मिंदा इसलिए नहीं होता हूँ कि मेरी गलतियाँ अपार है. उन पर शर्मिंदगी की तो उम्र पूरी इसी काम में गुज़र जायेगी.

कल रात जब मैंने स्टेट्स डाला कि एक फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजने को साहस चाहिए तो इसका आशय था कि हम स्वेच्छा से ऐसे कटघरे में प्रवेश कर चुके हैं जहाँ कई आरियाँ लगातार चलती रहती है. हमें उन आरियों के बीच से किसी वीडियो गेम के नायक नायिका की तरह आगे बढ़ना होता है. जो कट जाता है उसकी अन्य खिलाड़ी खिल्ली उड़ाते हैं. जो नहीं कटता और आगे बढता जाता है, उसे खिलाड़ी नहीं मानकर महान शातिर धूर्त माना जाता है.

ये हम कैसे निज उद्घाटन पर तुले हुए हैं. हमारे समक्ष कितने सारे खतरे मंडरा रहे हैं. हम किस मादक असर में भूल जाते हैं कि ये कोई खेल नहीं है और अगर खेल है तो भी इसमें कोई जीवनदान या नयी शुरुआत नहीं है. फिर हम क्या करें? बंद कर दें इसे. जैसा कि डीएक्टिवेट करने के रूप में अस्थायी तौर पर करते आये हैं. कोई तो हल होना ही चाहिए. आदर्शों के उपदेशक मेरे लिए मायने नहीं रखते. उनके विराग के भाषण मुझे प्रिय नहीं है. उनकी पक्की लंगोट उन्हीं को मुबारक हो. उनकी सत्यवती छवियाँ खोखली हैं. उनके आचरण अबूझ है. जो व्यक्तिगत जीवन में सामाजिक नहीं है वही इस कम्युनिकेशन की दुनिया में घोर-सामाजिक होने के स्वांग में डूबा है. मुझे तो अपनी खामियां प्रिय हैं. मेरे भीतर चाहनाएँ, कामनाएं और लालसाएं हैं. इस जगत से जी अभी भरा नहीं है. इस संसार से अभी मोह नष्ट नहीं हुआ. इसलिए मैं फेसबुक के पहलू में हूँ और वह मेरे साथ साथ है.

एक उपाय मेरा हमेशा साथ देता है.

मैंने एक पौराणिक कथा पढ़ी थी. जाबाला सत्यकाम की. मन में बसी रह गयी. जाबाला का पुत्र सत्यकाम पूछता है- माँ मैं किसी गुरु के पास विद्या अर्जन को जाऊँगा तो वे मुझसे मेरा गोत्र पूछेंगे. मुझे उनको क्या बताना होगा. सत्यकाम की माँ ने कहा- बेटा युवावस्था में मैंने असंख्य पुरुषों की सेवा की है इसलिए मैं नहीं बता सकती की तुम्हारे पिता की गोत्र क्या है. इसलिए तुम सिर्फ ये कहना कि मैं जाबाला सत्यकाम हूँ. सत्यकाम जब ऋषि आश्रम पहुंचा तो यही प्रश्न पूछा गया. सत्यकाम ने कहा मेरी माँ ने बहुत से पुरुषों की सेवा की है इसलिए मुझे नहीं मालूम कि मेरा गोत्र क्या है. मैं सिर्फ इतना जानता हूँ कि मेरी माँ जाबाला है और मैं सत्यकाम. ऋषि ने कहा तुम सबसे आगे आओ. तुम एक सच्चे ब्राहमण हो. एक ब्राहमण ही स्पष्ट वक्ता हो सकता है.

इस पौराणिक कथा में ब्राहमण का आशय किसी गोत्र से न होकर, स्पष्ट बात कहने से है. मैं खुद को याद दिलाता हूँ कि जाबाला का साहस ही उसका आत्मसम्मान है. हम कोई देव पुरुष या देवी नहीं हैं कि हमसे कोई भूल न हुई हो, हम साधारण मनुष्य हैं. हमने असंख्य व्यसनों और दुर्गुणों से भरे समाज के बीच रहते हुए भूल से या जानकार किसी दुर्गुण का संग कर लिया होगा. फेसबुक तो एक धंधा है, कोई धंधा आदर्श स्थापना के लिए नहीं किया जाता. इसकी खामियों पर खुद को माफ रखो.

जीवन का वह आरोहण भी क्या आरोहण, जिसमें कोई दोष न हो. जिसे कभी ठगा न गया हो वह वास्तव में महाधूर्त है.

बाबा ! प्रवचन कुछ लम्बा हो गया है. शांति शांति.
* * *

[Image courtesy : Pawel Kuczynski]

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