कभी हम एक खाली लम्हे के हाथ लग जाएँ तो गिर पड़ते हैं समय के भंवर में. उसी भंवर में भीगते डूबते चले जाते हैं. लेकिन जब कभी भर उठते हैं गहरी याद से तब हम असहाय, अतीत की उबड़-खाबड़ सतह पर अनवरत फिसलते हैं.
मैं जब कभी खाली लम्हों के हाथ लगता हूँ तो दौड़ कर किताबों में छुप जाता हूँ.
किताबों के आले में बहुत सारी किताबें जिनके आवरण सफ़ेद रंग के हैं, वे बड़ी सौम्य दिखती हैं. मैं उनको सिर्फ निगाहों से छूता हूँ. मुझे किताबों का गन्दा होना अप्रिय है. एक दोस्त अंजलि मित्रा ने किताब सुझाई थी “द पेलेस ऑफ इल्यूजन्स”. चित्रा बनर्जी का एक स्त्री की निगाह से लिखा हुआ महाभारत. ये किताब आई और आते ही बेटी के हाथ लग गयी. उसने अविराम पढते हुए पूरा किया. फिर ये किताब उसकी सखियों तक घूम कर कई महीनों बाद मेरे पास पहुंची. किताब का श्वेत-श्याम आवरण अपने साथ नन्ही बच्चियों की अँगुलियों की छाप लेकर आया और अधिक आत्मीय व प्रिय हो गया. प्रेम में अक्सर हम उदार हो जाते है और अपने प्रिय सफ़ेद रंग के धूसर हो जाने पर भी खुश रहते हैं. ये एक ज़रुरी किताब है. जिनको अमिष की किताबें प्रिय हैं उन्हें इसे ज़रूर पढ़ना चाहिए ताकि समझ सकें कि सार्थक कैसे लिखा जाता है.
समय इन दिनों मेरी पीठ को आहिस्ता से छूकर पूछता है, कहो तुम क्या करोगे? मैं इस खालीपन में सफ़ेद आवरण वाली किताबों के प्रेम में एक और किताब उठाता हूँ. स्पानी लेखक खुआन अल्फ्रेंदो पिन्तो सावेद्रा का कहानी संग्रह मोक्ष और अन्य कहानियां.
मैं निरंतर पढता हूँ. मंथर गति से, किसी काई की तरह शब्दों से चिपका हुआ. आगे न बढ़ने के हठ से भरा हुआ. मेरे पढ़ने का तरीका ऐसा ही है. स्पानी कहानियों की इस किताब के श्वेत विलास के भीतर हालाँकि मेरी पसंद की भाषा शैली नहीं है. कहानियां बोझिल ब्योरों से भरी हैं. कहानीकार उपन्यास जितनी लंबी कथा को कुछ पन्नों में समेटता है. इसी कारण कहानियां दूर दूर की यात्रा करते हुए पाठक को थका देती है. एक कहानी का शीर्षक है, खोसे ग्रेगोरियो. ये कहानी कुछ ऐसी है जैसे कभी कभी ही हमको कोई शाम अलग लगती है, जबकि हम जानते हैं हर शाम को अलग ही होना होता है. इसी तरह कहानी अलग है मगर लगती नहीं. खोसे ग्रेगोरियो बचपन से मेधावी गायक है, रेस्तरां, होटलों, वैश्यालयों और इसी प्रकृति के सभी सहोदर उपक्रमों में जीने को बाध्य किन्तु नाम और धन उसका लगातार पीछा करते हैं. बचपन में वह इस बात से नफ़रत करता है कि वेश्याएं मुझ नन्हे गायक को जबरन क्यों चूमती रहती है. बड़ा होते हुए भी वह इसी तरह की उलझन में रहता है. कुछ एक तफसीलों के बाद आखिर थाई मसाज से अपने कौमार्य पर पहली समलैंगिक सिहरन को उगने देता है. हम कितनी ही बार निषेध का जीवन जीते हुए आखिर किसी कमजोर लम्हे में उसे त्याग देते हैं. यही इस कहानी का कथ्य है.
जैसे मेरे पास किताबें होती हैं लेकिन मैं उनको पढ़ने के निषेध में जीता रहता हूँ और कभी कभी ये टूट जाता है. ये किताबें अक्सर मेरे सिरहाने पड़ी रहती हैं. मुझे किताबें देखना खूब प्रिय है. मैं उनको उलटता पुलटता हूँ और थोड़ी देर बाद खुश होकर उन्हें करीने से रख देता हूँ. महीने गुज़रने के बाद ही कभी मन किसी किताब को आवाज़ देता है. इस बार मैं सफ़ेद किताबें छांट कर अलग रखे हुए सबको देख रहा था. उन्हीं में अंजू शर्मा के कविता संग्रह को शामिल पाया. कल्पनाओं से परे का समय.
इस कविता संग्रह से एक खूब भली कविता पढ़ी, साल उन्नीस सौ चौरासी.
इसे पढ़ने के बाद सोचता रहा कि किस तरह गुज़रना हुआ इस साल से? इसके जवाब के लिए छत पर बैठे हुए चुप देखता रहा पुल के पार जाते हुए लोगों को. बस यही लम्हा है कि मैं देख रहा हूँ उनको जाते हुए. बस इसी पल वे गुज़र जायेंगे. यह फिर कभी न होगा. गुज़रना एक बार ही होता है. इसे पुनरावृति की अनुमति नहीं होती.
कल्पनाओं से परे का समय, यानि यथार्थ का ऐसा हो जाना कि वह कल्पनाओं से परे का लगे. अंजू यथार्थ को लिखती हैं, उनकी कविताओं में प्रेम रूमानी होने से अधिक आत्मीयता और सम्मान का पक्षधर है. उनकी अंगुलियां जिन शब्दों को चुनती हैं वे समानता की इबारतें गढती हैं. वे सब कवितायेँ एक ऐसे जीवन की कामना है जहाँ सभी तरह के भेद खत्म हों. इस संग्रह में शामिल शीर्षक कविता से इतर साल उन्नीस सौ चौरासी खुद-गिरफ़्त कविता होकर एक बड़े कैनवास को को चित्रित करती है. चौदह साल की एक किशोरी की स्मृति में घनीभूत और जड़ जमाए बैठे हुए साल चौरासी का भव्य और मार्मिक वर्णन. मैं इस कविता के जरिये उस साल के हेक्टिक होने को फिर से समझता हूँ. अचानक मुझे ख़याल आता है कि आठवें दशक के चौरासीवें साल में मैंने भी चौदह बरस की उम्र जी थी मगर इतना गहरा तो वह मेरे भीतर न उतरा. शायद रेगिस्तान के सुस्त जीवन में घटनाएँ इतनी शिथिल होती हैं कि उनका असर इस मद्धम गति के आगे दम तोड़ देता है. लेकिन क़स्बों, शहरों और महानगरों में संचरण तेज होता है. एक भय अपने साथ अनेक भयों की संभावनाएं लेकर आता है. एक चौकसी अनेक शंकाओं को जन्म देती है. एक असुरक्षा के परदे के पार अनेक अनिष्ट छिपे जान पड़ते हैं.
इसी संग्रह से एक कविता जिसे कई कई बार पढ़ा वह है, मुक्ति. उसी की चार पंक्तियाँ.
उस छत को जिसकी मुंडेर भीगी है
तुम्हारे आंसुओं से, जो कभी तुमने
मेरी याद में बहाए थे.
तुम्हारे आंसुओं से, जो कभी तुमने
मेरी याद में बहाए थे.
वैसे सफ़ेद रंग खूब अच्छा होता है. उतना ही अच्छा जितना कि काला. कई बार हमारे अपने भीतर की मचल और तड़प हमें किसी खास रंग की ओर धकेलती है. हमें कम ही समझ आता है कि प्राइमरी रंगों से अनेक रंग बनाते जाना खुशी है, किसी एक ही रंग पर ठहर जाना असल उदासी है.
कैथरीन मैन्सफील्ड की कहानियां पढ़ी हैं? ऐसा लगता है कि उसी कहानी में रूपायित हुए हुए जा रहे हैं जिसे पढ़ रहे हों. ऐसी कहानियां जैसे किसी और का जीवन चुरा कर जीए जा रहे हों. हाय वो आगे से सीधे कटे हुए बाल जो ढके रहते थे आधी पेशानी को, एक तीखी नाक और लंबा चेहरा जैसे कोई ग्रीक देवी, वे सवालों से भरी आँखें. हाय वो कैथरीन साहिबा.