हमारे भीतर दो अनिवार्य तत्व होते हैं. एक है हमें सौंपे गए सजीव शरीर को बचाए रखना और दूजा है निरंतर इसका उपयोग करते जाना. इसके उपयोग के लिए हमारे भीतर एक तलाश होती है. वह तलाश हमें नयी चीज़ों के प्रति जिज्ञासु, उत्सुक और लालची बनाती है. ये एक नैसर्गिक गुण है. इस तलाश की उपस्थिति मात्र से हम सबका अलग अलग होना भी नैसर्गिक है. कई बच्चे बड़े जिज्ञासु होते हैं, उनकी इस प्रवृति के कारण अक्सर वे हमें तोड़ फोड़ करने वाले, बिखेरा करने वाले और असभ्यता फ़ैलाने वाले लगने लगते हैं. लेकिन ये सहज है. जीव किसी कारखाने का उत्पाद नहीं है. वह अपनी विशिष्ट खूबियों और जीने के अलहदा अंदाज को साथ लेकर आया है. इसलिए वह लाख सांचों में ढाले जाने के बावजूद अपनी रंगत नहीं छोड़ता है. बच्चे सामने अगर चुप बैठे हैं तो ज़रा ध्यान हटते ही अपना प्रिय काम करेंगे. उनको उसी पल सुकून आएगा. उनकी पसंद का काम होने से वे राहत में होंगे. बस इसी तरह हम जीते रहते हैं.
ऐसे ही किसी बच्चे की तरह किताबों से मेरा याराना नहीं है. वे मुझे खूब बोर करती हैं. मैं उनके आस पास होता हूँ जैसे आप किसी नाव में सवार हों मगर बेमन. जैसे हवा में उड़ रहे हों मगर ख़याल में कुछ और. मैं एक तरह से खयाली पुलाव बनाने वाला बावर्ची हूँ. मेरे दिमाग में बातें और कल्पनाएँ एक के बाद एक बाद तेज़ी से दौडती हुई गुज़रती रहती है. मैं कभी शांत बैठा होता हूँ तब ये ख़याल राजपथो को छोड़ कर संकरी गलियों में विचरते हैं. इसलिए कोई ऐसी चीज़ जो इस में व्यवधान डाले मैं उससे मुंह फेर कर बैठता हूँ. मेरे इस आचरण के कारण मुझे ऐसा समझा जाता है कि मैं जहाँ हूँ वास्तव में वहाँ नहीं हूँ. मैं उपन्यास नहीं पढता. इसकी इकलौती वजह यही है. मुझे कुछ अनुभवी लोगों ने कहा कि उपन्यास लिखना गंभीर होने की निशानी है. शोर्ट स्टोरी का मान कम है. मैं मुस्कुराता हूँ. सोचता हूँ कि जब तक किसी कार्य के किये जाने का प्रयोजन हमें न मालूम हो तब तक हम कैसे किसी को सीधी सपाट सलाह दे सकते हैं. मेरा कहानियां लिखने का प्रयोजन है कि मुझे इसमें सुख है. जिसे सुख की चाह हो उसे मान से क्या वास्ता? कहानी कहना या पढ़ना ऐसा ही है जैसे पानी में ताज़ा गुलाब की टहनी को भिगोना और अपने ही चहरे पर लगाते जाना.
कैथरीन मेंसफील्ड की कहानियां पढते हुए मैंने रियोनुसुके अकूतागावा की खिड़की में भी झाँका. सोचा पूछूं दादा अफीम उगी या नहीं. उगने से मेरा आशय है कि सेवन करने के बाद ताज़गी आई या नहीं. वे वहीँ उसी राशोमोन को देख रहे थे. एक सड़ांध भरी हलकी हवा थी मगर भय बहुत भारी था. ये सामंती समाज में फैली अव्यवस्था का नाकाबिल ए बरदाश्त मंज़र था. ऐसे ही सामंती युग लौट लौट कर आता है. कोई भी चीज़ कहीं जाती नहीं है. वह कमतर या बेहतर हो जाती है. हम भी अपने आचरण में सामंत होते जाते हैं. जैसे ही हमें मालूम होता है कोई चाहने लगा है तो तुरंत कलापूर्ण, मानवीय और प्रेमी होने का रुख बदल लेते हैं. सवालों और परीक्षणों पर उतर आते हैं. हम मन के किसी कोने में अपने अभिमान का पोषण करने लगते हैं.
कैथरीन साहिबा की जो कहानी मैंने परसों सुबह पढ़ी थी. वह मेरी पढ़ी हुई बेहतरीन कहानियों में से एक है. कथा का शीर्षक है गार्डन पार्टी. हाँ ऐसे ही दीवानावार नहीं मगर जैसा हाल हो वैसे जी लेता हूँ. इन दिनों कहानियां पढ़ रहा था. आज कहानी लिखना शुरू किया. दम ताज़ा कहानी. वैसे कहानी के बारे में कहा जाता है कि जिस कहानी के कथ्य को आप एक वाक्य में नहीं कह सकते वह कहानी नहीं कोरी बकवास है. सेन्ट्रल स्पाइन क्या है? मैं कहानियां पढते हुए ये भी समझाने की कोशिश करता हूँ कि कहानी जिस समाज और भूगोल को उकेरती है उसकी जड़ें किधर हैं. अर्थात वह कौनसी एक बात थी जिसने कहा कि ये कथा कहनी चाहिए. मैंने आज जो कहानी शुरू की वह महानगरीय जीवन का बिम्ब है. इस कहानी से मैं ये समझना चाहता हूँ कि क्या वाकई जीवन गति के सापेक्ष है. क्या कभी जब हम किसी बहुत भारी चीज़ के साये में जी रहे होते हैं तो हमारी गति कम हो जाती है. क्या हम किसी फ्रीज़ जीवन का हिस्सा होने लगते हैं? क्या ठहराव भरा जीवन हमें अधिक अनुभूतियाँ देता है. बस इसी तरह की कुछ मामूली बातें और एक सहज कथानक मेरे मन है. लगता है कि मेरा मन अच्छा रहा तो कहानियां लिख लूँगा. इसलिए कि मेरा कोई अंतिम लक्ष्य नहीं है और मैं चीज़ों और स्थितियों से खूब प्रभावित होता हूँ.
शाम उतर आई है और मैं याद कर रहा हूँ कि वर्गभेद के विलासी कालीन में गुंथे मानवता के इकलौते धागे की कथा है, कैथरीन मैन्सफील्ड की कहानी गार्डन पार्टी.
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[Painting Image : The self portrait of Vigee Le Burn]
[Painting Image : The self portrait of Vigee Le Burn]