ज़िंदगी कितनी नफ़ीस और कितनी ऐबदार है.
वह लड़की रो रही थी. मैंने उसे उसी समय क्यों देखा, जब उसकी आँख का आंसू उसकी तर्जनी के शिखिर को छू रहा था. अचानक याद आया कि किसी महबूब ने बददुआ दी थी कि तुम भी एक बेटी के बाप हो. इसलिए कि मैं देखूं ये षोडशी का आंसू तुम्हारी अपनी बेटी की आँख में भी हो सकता है. शायद उसका आशय कभी ऐसा न रहा हो कि उसकी आँख में हो. बस एक उलाहना भर हो.
वह लड़की कनाट प्लेस के ए और बी ब्लाक के बीच पत्थरों से बनी हुई बैठकों पर बैठी हुई थी. उसके साथ जो लड़का था वह ज्यादा चिंतित न था. चिंतित होने से मेरा आशय है कि उसे लगता होगा कि लड़की के आंसू का कारण वह न था. मगर मैंने अचानक याद किया कि उसने पूछकर हाल, रुला दिया उसको. यानि हम कहीं भी हों, कई बार सामने वाले के दुःख पूछ कर उसे रुला देते हैं. इसी तरह क्या मेरे सब हिसाब मेरी बेटी से चुकता किये जायेंगे?
अचानक मुंह कड़वा हो जाता है.
कनाट प्लेस पर बादल कुछ देर पहले बरस कर गए थे. सब तरफ एक खुशी थी कि दिल्ली की उमस भरी गर्मी से पीछा छूटा, सब तरफ एक शिकायत थी कि यहाँ पानी क्यों फैला है? ये जो है वह क्यों है और जो नहीं है वह क्यों नहीं है? इसी ख़याल और तफसील में जीती हुई दुनिया कमाल है.
रात को कहानी पढ़ रहा था. राजेंद्र राव की कहानी है, कितने शीरीं हैं तेरे लब कि... जब मैं जन्मा था उस दौर के कथाकार हैं लेकिन पढते हुए लगता है कि इस दौर के कथाकार हैं. हर दौर के कथाकार हैं. इसी कहानी के शीर्षक से कथा संग्रह है. सामयिक बुक्स दिल्ली से आया हुआ. एक बेहद घटिया कवर वाला कहानी संग्रह. मगर कवर से क्या होता है. जैसे मैं दिखता बढ़िया हूँ मगर असल में वैसा नहीं हूँ. उसी तरह एक खराब कवर में अच्छी कहानियां हो सकती हैं.
मनोवैज्ञानिक कहानियां मैंने कम पढ़ीं हैं. वैसे हर तरह की कहानियां कम ही पढ़ीं हैं. इस कहानी को पढते हुए रेगिस्तान के रेल स्टेशन गुज़रते रहते हैं. उसी तरह जैसे अचानक आपको याद आये कि पंजाबी नाम चार या पांच अक्षर के होते हैं. उनके निक नेम ढाई अक्षर के. कहानी में क्लास फेलो लड़की का नाम चार अक्षर का है. नाम में क्या रखा है मगर मैं कहीं पहुँच जाता हूँ. जैसे मैंने एक कहानी लिखी थी परमिंदर की कहानी. असल में उस कहानी से ज्यादा मुझे याद आई भोपाल की एक लड़की की. सुरजीत की तरह उसका भी चार अक्षर का नाम है. उसके बारे में लिखने को लाख बातें मैंने बचा रखी है. शीरीं लबों की इस कहानी के मुकाबिल याद आता है कि उसने मुझे कहा “कितनी गर्मी है तुम्हारे तो भुट्टे की तरह सिक गए होंगे.” यही संवाद उसने रवीश कुमार को कहा और फिर खिलखिलाते हुए मुझे यह बात बताई.
हाय! क्या बेहयाई है. कोई बीस पच्चीस साल की लड़की कभी इस तरह की बातें कहती हैं? मगर सचमुच ये कोई फंतासी नहीं है. राव साहब की कथा की पात्र सुरजीत और उसके दारजी इससे ज्यादा भदेस गालियाँ देते हैं. वे जड़ों से मुक्त हैं. वे धरती और हवा के बीच किसी जीवन के प्रतिनिधि है. उनके लिए ये इस पल ज़िंदा होना बड़ी बात है मगर मैं अपने अतीत के खौफ़, भविष्य की चिंताएं लिए इससे असहमत रहता हूँ. मैं अपनी भाषा के प्रति अचानक सजग होने लगता हूँ. आगे क्या सीखूंगा ये सोचने लगता हूँ.
कहानी से सुरजीत अचानक गायब हो जाती है. जैसे कि मैं अपनी दोस्त से कहता हूँ तुम मोदी प्रेम में अपनी दृष्टि खो चुकी हो. ये बदलाव नहीं वरन जड़ता की ओर बढ़ने का संकेत है. वोट हालाँकि सबने मोदी को दिया जैसी परिभाषाएं गढ़ी जा रही हैं. वह रूठ जाती है. कहती है “तुम पांच रुपये के हो, मेरे दोस्तों को बार बार न गरियाओ. तुम्हारी औकात तुम अपने पास रखो.” इस तरह हमारी बातचीत बंद हो जाती है. मुझे उसने अपने एक-एक लम्हे के बारे में बताया होता है. अपने बचपन से लेकर अब तक का. अपने प्रेम से लेकर खालीपन तक का. क्या मैं इसे लिखूंगा? क्या मैं कभी उसके इस बिहेव का प्रतिकार करूँगा? नहीं. मैं तय पाता हूँ कि उसने जो गालियाँ राहुल और अरविन्द को दी है उसकी तुलना में मेरा बड़ा मान रखा है.
लेकिन मेरा एक बेटी का बाप होना मुझे उस ओर खींच ले जाता है जिधर एक किशोरी अपनी आँख से आंसू पौंछ रही होती है और उसकी दूसरी तरफ मेरी बेटी पूरे परिवार के साथ खुशी भरे क्षण बिता रही होती है.
राजेन्द्र राव सर की कहानी में मनोविज्ञान का इस तरह उपयोग हुआ है कि हम कहानी को पढते हुए जाने कितनी बातें बिना पढ़े अपने आप समझते जाते हैं. क्या मीठी ज़ुबान का होना भला है? या फिर तमाम घटनाक्रम के बाद अचानक से मीठी ज़ुबान का नैसर्गिक हो जाना, आवरण रहित और ओरिजनल हो जाना. हम अपने सारे पहनावे की तारीफ करते हुए अचानक से उस पल, उस स्थिति, उस दृश्य, उस कामना के भीतर पहुँचते हैं कि उलझ जाते हैं. हम हैरत ,में पड़ जाते हैं. क्या हमने जो सीखा और ओढ़ा था वह सही था या जो हमने उतार दिया और भुला दिया वह अच्छा है? या ऐसा चमत्कार कैसे हुआ कि जिसे सीखने के नाम भर से उल्टी आने लगती थी, उसी के अच्छे प्रदर्शन के लिए शाबासी के पात्र बन गए.
कहानी कई परतों में हैं. ऐसा लगता है कि राव साहब इसे खूब लंबी लिखना चाह रहे होंगे और किसी कारण से समेट दिया. यूं इस कहानी के चार भाग है. उन सबको साफ़ देखा जा सकता है. यूं ये कहानी कहती है कि समझदार को इशारा काफी है. हम अक्सर कहते हैं कि कैसी बाज़ारू भाषा में बात कर रहे हो. ये भाषा की अशिष्टता के लिए सबसे अधिक प्रयोग किया जाने वाला वाक्य है. इस कहानी में बाज़ार है, प्रतिस्पर्धा है, चालाकियां हैं, स्वार्थ है, और किसी का गला काट कर आगे बढ़ जाने जितनी निर्दयता भी है. कथा के प्रथम पुरुष के बॉस का चरित्र गालियों से मुकम्मल होता है. ऐसा कहीं नहीं जान पड़ता कि ये कोई अवास्तविक पात्र और कल्पनीय भाषा है. एक पाठक की तरह इससे गुज़रते हुए मैं हर कहीं बाजारवाद के ऐसे नुमाइंदों को खूब अच्छे से बुन लेता हूँ. उनकी काइयां शक्ल और अशिष्ट शब्दों से भरी भाषा मंज़र और पसमंज़र दोनों को बुनती है. यही भाषा कम ओ बेश निचले स्तर के दलाल से लेकर एक्जीक्यूटिव स्तर तक समान रूप से संचरित है. राजेंद्र राव, समाज के हर तबके की भाषा में उपस्थित इस दोष या खूबी को किसी मनोवैज्ञानिक की तरह चिन्हित करते हैं. बसों और रेल गाड़ियों में सफर करने वाले माँ और बहन की गालियाँ देने वाले लोग हिकारत से देखे जाते हैं मगर उनको समझा कभी नहीं जाता. उनको ये भाषा जिस बाज़ार ने दी है उसका नियामक कौन है? ये कहानी इस तरह की भाषा की गिरहें खोलती है.
मैं सोचता हूँ कि वह कौनसा एलिमेंट था? जिससे इस तरह की मनोवैज्ञानिक कहानी का अवतरण हुआ. क्या सचमुच हमारा ओढना - पहनना हमें अपने आप से दूर करता है. क्या शीरीं लबों की नाज़ुकी और अल्हड़पन के बीच की दूरी बड़ी मामूली है. क्या हम असल में वे हैं हीं नहीं जो हम जीए जा रहे हैं.
मैं सोचता हूँ कि वह कौनसा एलिमेंट था? जिससे इस तरह की मनोवैज्ञानिक कहानी का अवतरण हुआ. क्या सचमुच हमारा ओढना - पहनना हमें अपने आप से दूर करता है. क्या शीरीं लबों की नाज़ुकी और अल्हड़पन के बीच की दूरी बड़ी मामूली है. क्या हम असल में वे हैं हीं नहीं जो हम जीए जा रहे हैं.
मैं फिर से देखता हूँ कि दिल्ली पर मेहरबान बादलों का कोई झोंका गुज़रता है.
बेटी कहती है- पापा, क्या आज आप मुझे जोगर दिलाओगे? मैं मुस्कुराता हुआ उठ जाता हूँ. इसलिए कि जो कुछ उसे चाहिए दिला दूं. वह बच सके बददुआओं से. उसके पास रहे हर एक चीज़. हम दोनों उठकर जाने को होते हैं तभी वह नन्हीं लड़की फिर से पोंछती है अपनी आँखें. वह लड़का जिसे हालात के नज़र झूठा और मक्कार कहा जा सकता है, वह चुपचाप देखता है उसकी भीगी आँखों को और कुछ नहीं कहता.
इस तस्वीर से उस लड़की का कोई वास्ता नहीं है. वह लड़की और उसका साथी उठकर जा चुके थे. उनकी जगह ये नवयुवती और नवयुवक आकर बैठ गए. ये जिंदगी के एक लम्हे का सिर्फ इल्युजल भर है कि एक अधेड़ आदमी चिंतित है और नयी नस्ल खुश है.इस तस्वीर के यहाँ होने से किसी को कोई एतराज़ हो तो कृपया इस पते पर ईमेल करें, इसे तुरंत हटा दिया जायेगा. kishorejakhar@gamil.com