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Showing posts from 2025

समय की बारिशें

माँ और बेटी खेल रहे थे। मौसम में सीलापन था। बारिश रह-रहकर गिर रही थी। छठे माले की खिड़कियों से देखने पर कुछ हाथ की दूरी पर बादल तैर रहे थे। मैं आदतन ख़यालों में खोया हुआ। कल्पना के सांपों पर सवार था। वे साँप इसलिए थे कि सीधे चलते हुए भी डरावने बल खाते भाग रहे थे।  हज़ार एक किलोमीटर कार में चलने से दिमाग़ में बस जाने वाले हिचकोले यथावत थे और तय था कि दो दिन बाद बाड़मेर लौट जाना है। जैसे केंकड़े सीपियों के खोल में घुसकर ख़ुश हो जाते हैं, ठीक ऐसे ही मेरा रेगिस्तान लौटना होता है। वहाँ लौटने से पहले यहाँ लगातार बारिश को देखना अलग सुख था।  सब जगहों की बारिशें अलग होती हैं। आँखों की बारिशें सबसे अलग होती हैं। कभी ख़ुशी, कभी उदासी, कभी प्रतीक्षा या किसी भी भावबोध में आँखें अलग तरह से बरसती हैं। धरती पर होने वाली बारिशें भी इसी तरह बहुत अलग हैं।  रेगिस्तान की कड़क गर्मी के बाद उमस जब चरम पर पहुंचती है। बादल अचानक बेसब्री से बरसने लगते हैं। जैसे उनको तुरंत लौट जाने की हड़बड़ी हो। सचमुच वे घनघोर बारिश भी करें तो भी घड़ी भर में गायब हो जाते हैं। आकाश खुलकर साफ़ हो जाता है। मिट्ट...

डॉ सोमवीर जाखड़ – एक वीराना उग आया

क्या फूल भी किसी फूल की स्मृति में उदास होते हैं? इस बात का ठीक जवाब दे सकने वाला आँखों से ओझल हो चुका था। यहीं-कहीं होने की ख़ुशबू को हाथ बढ़ाकर छुआ नहीं जा सकता था। सब एक दूसरे को छूकर पता कर रहे थे। हर छुअन में एक अतिरिक्त रुलाई दीवारों से टकरा कर दिल को बींधती रही।  पनियल आँखों से रुलाई की लकीरों से भरे चेहरे को नहीं देखा जा सकता है। इसलिए आँखें बाहर देखना चाहती है। बाहर वीराना है। इतनी ख़ाली जगह पर सांस नहीं आती। ख़ालीपन एक भीड़ की तरह घेर लेता है। ख़ालीपन रौंदता हुआ गुज़रता है। मन पददलित होता हुआ पुकारता रहता है। कि क्या इस सब को कहीं से देख रहे हो?  क्या  आपको  पता है? आप से  किसी को झगड़ने, गले लगने और रूठने-मनाने के लिए नई उम्र चाहिए होगी। मैंने देखा आपको जीवन से भरा हुआ। प्रसन्नता से तेज़ कदम चलते हुए , चुप बैठे हुए अचानक उचक कर मुसकुराते हुए , किसी बात पर गंभीर होते हुए और फिर कहते हुए कि अपना तो क्या ही था। बड़ी मुश्किल से जगह बनाई। विश्वविद्यालय के तीन नंबर गेट के पास जब हम पहुंचे तो मैंने कहा “वो सामने चाय की थड़ी और दुकान दिख रही है ? हम देर रात...

चश्मा टूटने का स्वप्न

मैं अपनी डायरी में अर्थहीन और कथानक के हिसाब से छिन्न भिन्न सपनों के बारे में लिखता रहा हूँ। उन सपनों के देखे जाने के कुछ समय पश्चात मुझे कोई उकसाता रहा कि जाओ उनको फिर से पढ़ो। मुझे कोई आशा नहीं होती थी कि उनको दोबारा पढ़ने पर कुछ उपयोगी होगा। लेकिन मुझे अचरज होता था कि उनको पढ़ने पर कुछ संकेत मिलते थे, कुछ तार जुड़ने लगते थे।  आज सुबह मैं स्वप्न में डर गया था। मैंने हाल में फिर से चश्मा बनवाया था। दृष्टि दोष अधिक बढ़ा न था किंतु चश्मे के काँच घिस चुके थे। उनके पार देखना कष्टप्रद था।  चश्मे बहुत महंगे बनते हैं। इसलिए कई महीनों तो मैं अपनी आर्थिक स्थिति को सोचकर नया चश्मा बनवाना स्थगित कर देता था। अक्सर कोशिश करता कि बिना चश्मे के पढ़ सकूँ। लेकिन ये कभी संभव न हुआ। हालाँकि कई बार निकट उपस्थित व्यक्ति को अपना व्हाट्स एप मैसेज दिखाया और पूछा कि क्या लिखा है। लिखा हुआ सुनने के बाद उसका उत्तर कम शब्दों में ठीक ठीक लिखने में सफल रहा था।  कुछ दिन पहले चश्मे की दुकान पर गया। मन को कठोर करके नया चश्मा बनवा लिया। इतने सारे रुपये देते हुए मुझे पीड़ा भी हुई। एक चिंता रही कि ये चश्मा...