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Showing posts from 2016

जाको लागे वो रंग

अचानक माणिक ने किताब उठा ली. “पुखराज की किताब? क्या बात है” नीलम का दिल सदमे में चला ही जाता कि माणिक की मुस्कराहट ने इस सदमे को रोक लिया. वह उनको देख रही थी. जाने क्या सोचें, क्या कह बैठें. कुछ देर तक किताब के पीछे का पन्ना देखने के बाद माणिक ने किताब को अधबीच के किसी पन्ने या शायद आगे पीछे कहीं से पढना शुरू किया. हरा रंग माणिक के हाथों में था लेकिन नीलम के सब रंग ज़र्द हुए जा रहे थे. माणिक ने कहा- “खुली नज़्में” मई महीने को आधा बीतने में दो दिन बचे थे. रात के आठ बजे थे. दिल्ली जाने की तैयारी थी. नीलम ने इससे पहले क्या बातें की थी ये पुखराज को याद नहीं था लेकिन पौन घंटे बाद एयरपोर्ट निकलने से पहले नीलम कहा- “कल जो हुआ वह मुझे अभी तक सता रहा है. क्या आपको कुछ कहा है उन्होंने?” नीलम असल में पन्ना के बारे में सवाल कर रही थी. लेकिन इस बात से ज़रूरी बात उनके बीच थी कि अब जाने क्या होगा. नीलम ने कहा- वे टेक्सी करवा रहे हैं पुखराज चुप रहना चाहता था मगर उसने जवाब दिया- मेरा हाल अजूबा है. मगर मेरे हाव भाव सामान्य है. वह पूछती है- अरे क्यों? क्या मैंने कुछ किया? पुखराज ने...

तब तक के लिए

पत्ता टूटा डाल से ले गयी पवन उड़ाय अबके बिछड़े नाहीं मिलें दूर पड़ेंगे जाय. ~ कबीर मन शिथिल, उदासीन, बदहवास, गुंजलक. महीनों उलझनों से घिरा. नासमझी से भरा. बीतते दिनों से बेपरवाह. ठहरी चीज़ों से अनजान. दीवार हुआ मन. आंधी का भंवर. सूखी नदी से उड़ती धूल सा मन. कितनी ही जड़ें उग आई होगी. कितनी ही शाखाएं उलझ पड़ीं थीं. क्या मन के भीतर आने के चोर रास्ते होते हैं? क्या कोई बेशक्ल चीज़ मन पर एक उदास छाया रच देती है. अक्सर समझ नहीं आता. क्या हम कभी इस सब को समझ सकते हैं? मगर समझें क्या? वो कहीं चुभता दिखे. वह गिरह कसती हुई सामने आये. वो साँस तड़प कर किसी का नाम ले. मगर कुछ नहीं मालूम होता. आज सुबह अचानक सबकुछ हल्का हो गया. सोचा कल की रात क्या गुज़रा था? क्या सुना-कहा था? क्या जीया था? इस खोज में कुछ भी बरामद नहीं होता. कोई शक्ल, कोई आवाज़, कोई छुअन याद नहीं आती. फिर ये क्या है कि बोझा गायब जान पड़ता है. मन खुली हवा में ठहरा हुआ. मन बेड़ियों से आज़ाद. मन अपने प्रवाह की लय में लौटता हुआ. बोगनवेलिया से अनगिनत पत्ते रोज़ झड़ते हैं. रोज़ कोई बुहार देता है. लेकिन किसी रोज़ मन उनको खोज लेता है. उस...

इस आग ही आग में

तिवारी जी ने कार रोक दी है। हापुड़ से मयूर विहार तक शैलेश भारतवासी एक कहानी सुना रहे थे। मानव कौल की लिखी कहानी। मैंने ऐसे अनेक सफर किये हैं। मगर उन सब में कहानी मैं ही सुना रहा होता था। मैंने आज तक जितनी कहानियां सुनाई हैं , वे सब झूठ हैं। कहानी को सच क्यों होना चाहिए जबकि हम झूठ भर से ही किसी का जी दुखा सकते हैं। झूठ भर से काटा जा सकता है एक लंबा सफर। आज जो मैंने कहानी सुनी वह तीन लड़कों की प्रेम कहानी है. प्रेम एक युद्ध है. इस कहानी में शांति के मोर्चे पर बैठे एक दूजे को अपने भीतर सहेजे दोस्त अचानक युद्ध के आरम्भ हो जाने के हाल में घिर जाते हैं. इसके बाद मोर्चे पर हो रही हलचल कथानक में बढती जाती है. घटनाएं तेज़ गति से घटती है और योजनाएं नाकाम होती जाती है। प्रेम वस्तुतः नाकामी को अपने पहलू में रखता है और बार-बार इस बात का परिक्षण करता है कि क्या सबकुछ ऐसे ही होना था? वह सोचने लगता है कि गुणी और योग्य व्यक्ति की जगह प्रेम को अक्सर चापलूस और मौकापरस्त चुरा लेते हैं. प्रेम हवा का तेज़ झोंका है जो जीवन को आलोड़ित करके कहीं छुप जाता है. शुक्रिया मानव इतनी सुंदर कहानी कहने के लिए। मैंने इस...

फ़ैसले के बाद का इक सवाल

मुमकिना फ़ैसलों में इक हिज्र का फ़ैसला भी था हमने तो एक बात की उसने कमाल कर दिया। ~परवीन शाकिर घर की मरम्मत के काम से उड़ती हुई गर्द ने सब धुले कपड़ों को ढक लिया। कई रोज़ से एक ही जीन...

उन दिनों के बुलावे

परिवार का संकुचित जीवन, घर की चारदीवारी में बंद स्त्रियां और धन संग्रह की भावना राज्य की एकता और उसके समस्त घटकों के स्वतंत्र विकास की क्षत्रु है ~ अफलातून। कुछ दोस्त मेरी ...

तुम्हारे उसका क्या हाल है?

उसके हाथ साफ़ थे. अंगुलियाँ सब गिरहों को करीने से रखती जाती थीं. दिल और दिमाग भले कितनी ही जगह उलझे हों, फंदे के कसाव न कम होते थे न फैलते थे. जब तक थका हारा हुआ बदन ठंडा था. वो आराम गरमाहट भली सी लगती थी. लोग कहते थे कि ये बुनावट असल में उसकी अँगुलियों की ज़रूरत थी. वे अंगुलियाँ जो बचपन से अब तक नयी छुअन की तलबगार रही मगर अपने ही किसी डर के कारण चुप लगाकर बैठी रहती थी. जिस तरह बेशर्मी आती है. जिस तरह असर खत्म होता है. जिस तरह परवाह जाती रहती है. उसी तरह ये हुनर भी आया था. अलग -अलग सिरे बांधना और फंदे बुनते जाना. एक दोपहर उसने सिरा बाँधा. शाम को बात करते हैं. शाम को फंदा डाला. "वो बहुत दूर है. हालाँकि लौटने में कोई तीन दिन का फासला भर है. मगर तुम समझते हो न कि किसी का यूं लौट आना लौटना नहीं होता. बस आधी रात को फ्लाइट लेंड करेगी. दो एक घंटे में घर की डोरबेल बजेगी. उसके इंतज़ार में कदम वहीँ दरवाज़े के पास खड़े होंगे. वह अपने ट्रोली बैग को किनारे कर देगा. उसी तरफ जहाँ पिछली बार लाया हुआ एक पौधा रखा होगा. वाशरूम उधर ही है. रास्ता बेडरूम के अन्दर है. अगर उसी की आदत न हुई होती तो वो...

उससे पहले

स्मृतियां गहरे से हल्के रंग की ओर बढ़ती हैं। फिर पीली पड़ जाती हैं। जैसे किसी तस्वीर का कागज़ उम्रदराज़ दिखने लगता है। उसके पीलेपन को देखते हुए लगता है कि एक हलके से मोड़ से टूट ज...

असंयत उद्विग्न

आप कभी नहीं समझ पाएंगे कि आसान क्या है और मुश्किल क्या? इस दुनिया में सबकुछ अपनी न्यूनता और आधिक्य के साथ गुण-दोष में परिवर्तित होता रहता है। इधर कई रोज़ से आसमान में बादल हैं...

एक रोज़ तुम्हें मालूम हो

उस सूनी पड़ी सड़क पर कोलतार की स्याह चमक के सिवा कुछ था तो एक फासला था. उमस भरे मौसम में हरारत भरा मन दूर तक देखता था. देखना जैसे किसी अनमने मन का शिथिल पड़े होना. दफअतन एक संदेसा गिरा. जैसे कोई सूखी पत्ती हवा के साथ उडती सड़क के वीराने पर आ गिरी हों. सहसा कोई हल्की चाप हुई हो आँखों में. मन को छूकर कोई नज़र खो गयी हो. हवा फिर से दुलारती है सूखी पत्ती को. एक करवट और दो चार छोटे कदम भरती हुई पत्ती सड़क की किनार पर ठहर जाती है. ऐसे ही किसी रोज़ ठहर जाना. शाम गए छत पर बैठे हुए क़स्बे की डूबी-डूबी चौंध में उजाले में दिखने वाले पहाड़ उकेरता हूँ. चुप पड़ा प्याला. बारीक धूल से अटा लाइटर. और बदहवास बीती गर्मियों की छुट्टियों की याद. फोन के स्क्रीन पर अंगुलियाँ घुमाते हुए अचानक दायें हाथ की तर्जनी उस बटन को छूने से रुक जाती है. जिससे फोन का स्क्रीन चमक उठे. क्या होगा वहां? आखिर सब चीज़ें, रिश्ते, उम्मीदें एक दिन बेअसर हो जाती हैं. उनके छूने से कोई मचल नहीं होती. कब तक उन्हीं चंद लफ़्ज़ों में बनी नयी बातें. कब कोई ऐसी बात कि लरज़िश हो. मगर उसके लफ्ज़ पढता हूँ.  सोचता हूँ कि क्या बात उ...

लगा लो होठों से

इतनी कसमें न खाओ घबराकर  जाओ हम एतबार करते हैं. उस आखिरी कश में क्या होता है? अक्सर मैं मांग लेता हूँ. उसने शेयर करना जाने कब का छोड़ दिया होगा कि देने से पहले एक सवालिया निगाह उठती है. उसने ज़रा सा जाने क्या सोचकर अपनी अंगुलियाँ आगे कर दी. यही कोना है, मेरा. ऐसा सुनते हुए मैं उसकी अँगुलियों से आखिरी कश चुन लेता हूँ. क्या उसके लबों को छूकर ठहरी चीज़ें बेशकीमती हो जाती हैं. हो ही जाती होंगी कि मैं अपनी नादानी पर चुप रखे हुए धुएं को रोशनदान से बाहर जाते हुए देखता हूँ. आह ! किस चीज़ को किस चीज़ से मिला रहा हूँ मैं.  कभी किसी परिंदे का मन भी उस बाग़ से भी उठ जाता होगा. जिस बाग़ से सुकून और अपनेपन की आस रहती थी. कई बार वे रास्ते भी फीके लगते हैं, जिनपर चलते हुए वक़्त जाने कहाँ चला जाता था. कई बार खिड़कियाँ वहीँ रहती हैं मगर बाहर के सब दृश्य गुम हो जाते हैं. कई बार हम वो नहीं होते जो कभी थे.  इसी होने और बदल जाने के बीच, अतीत को धन्यवाद.  अगर वह सबकुछ न जीया होता. तकलीफें हिस्से न आई होती. वो बना ही रहता अपने आवरणों के भीतर और सजा आगे खींचती ही जाती. तो क्या...

पार्टनर तुम आबाद रहो.

मिर्ज़ा ग़ालिब की वो बात याद है न? कहते थे नौकर नहीं हूँ मैं.  मैं सोचता हूँ कोई तो कुछ वजीफे छोड़ जाता हिस्से में कि कहानियां कहते, तनहा रहते, फाकों की चिंता न होती. हर महीने रूपया घर आ जाता. मन मुस्कराता है. ऐसा कहाँ होता है. मैं तो जहाँ से याद कर पाता हूँ वहां से जीवन जीने को नौकरी करने की ही चिंता दिखाई देती है. बड़े नौकर, छोटे नौकर और मंझले नौकर मगर पक्के सरकारी नौकर. यही नौकरी सुख की नांव है.  सुख ने सही वक़्त से पहले ही गलबहिंयाँ डाल दी थी. उसे पता था नाज़ुक दिल आदमी है ख़ुद को सता लेगा मगर कोई छल-प्रपंच न कर सकेगा. जियेगा, चाहे निचले दोयम हाल में ही जीना पड़े. कहीं किसी अख़बार में कुछ एक लेख लिखता. पुराने दुष्टों की झिडकियां सुनता रह न सकेगा इसलिए बार-बार नयी नौकरियों की ओर भागेगा. इस तरह का भागना इसे हताश करेगा. तो कुदरत और हालत ने बाईस साल की उम्र में रेडियो में बोलने की नौकरी पर लगा दिया.  नौकरी का ख़याल कल दिन भर पार्टनर के कारण रहा. छोड़ दो नौकरी या रिटायर हो जाओ का हिसाब इसलिए नहीं जमता कि ये पार्टनर कि अपनी चीज़ है. उसपर कोई हुक्म चलाना या दखल देना बेजा ...

एक जुगलबंदी को

कितनी ही दफा कितने ही मौसमों से गुज़र कर दिल भूल जाता है. कभी-कभी हवा, पानी, ज़मीं और आसमान के बीच किसी एक ख़याल की छुअन होती है. ये छुअन मौसम की तासीर को अपने रंग में ढाल लेती है. तल्ख़ हवा, तपिश भरी ज़मीं, उड़ चुका पानी और साफ़ या भरा आसमान सब बदल जाते हैं.  कोई शहर किसलिए बुलाता है किसी को? क्या कुछ कहीं छूट गया था? क्या कोई हिसाब बाकी था. क्या कोई नयी बात रखनी थी ज़िन्दगी की जेब में. फिर अचानक ख़याल आता है फटी जेबों और उद्दी सिलाई वाली जिंदगी के पास यादों के सिवा क्या बचेगा? अब तक यही हासिल है तो आगे भी... पिछले सप्ताह के पहले दिन को मुकम्मल जी लेने के बाद एक लम्बी सांस आती है. याद से भरी सांस कि हाव यही वे लम्हे थे. दिल फिर उसी मौसम से गुजरता है.  जबकि कुछ ही देर पहले गुज़रा हो कोई अंधड़ सूखी पत्तियों की बारिश लिए। बूंदें गिरती हो कम-कम। इतनी कि भीग जाएँ और भीगा भी न लगे। दुकानें पूरे शबाब पर हों मगर गिरे हुए हों शटर आधे-आधे। जब दो अलग तरह के प्याले रखे हों एक साथ जैसे कोई दो अलग वाद्य आ जुटे हों एक जुगलबंदी को। जब सर रखा हो उसकी गोद में और आवाज़ बरसती हो आहिस्ता मीठ...

कासे में भरा अँधेरा

“माँ, तुम मेरी चिंता करती हो. एक आदमी की प्रतीक्षा करती हो. एक मूरत पर विश्वास करती हो.” रेहा के कहने का ढंग चुभ गया था या इस बात को माँ सुनना नहीं चाहती थी. उनका चेहरा कठोर हो आया था. “जो बातें समझ न आये वे नहीं करनी चाहिए” “समझने के लिए ही पूछा है” माँ कुछ नहीं कहती पहले रेहा की तरफ देखती है फिर दीवार के कोने में झाँकने लगती हैं. चेहरा स्थिर से जड़ होता जाता है. रेहा पास सरक कर माँ के कंधे पर अपनी हथेली रखती है. “बुरा न मानों माँ. ऐसे ही कई बार लगता है कि तुमसे पूछूं. तो आज पूछ लिया” “तुम्हें मालूम है? तुम्हारी उम्र क्या है? इस साल तुम पंद्रह की हो जाओगी”  “हाँ तो?” “तो ये एक आदमी की प्रतीक्षा क्या होता है? कैसे बोलती हो?..” रेहा ने माँ को कभी ऐसे नहीं सुना. वे शांत रहती हैं. उनका चेहरा ठहरा रहता है. उनके चेहरे की लकीरें, रंगत, फिक्र, ख़ुशी कभी नहीं बदलती. लेकिन उन्होंने चिढ कर कहा था. इस चिढ में दुःख भी था. उन्होंने अपने हाथ भी कुछ इस तरह उठाये जैसे जो बात शब्दों से न कही गयी उसे इशारे से कहना चाहती हों. “माँ.” रेहा ने आहिस्ता से कहा. इसमें एक अर्ज़ भ...

चल दिए सब चारागर

क़फ़स भी हो तो बन जाता है घर आहिस्ता-आहिस्ता याद तो क्या है, रेगिस्तान के अंधड़ हैं. नहीं आते तो नहीं आते. आते हैं तो फिर नहीं रुकते. क्या सचमुच तीलियों के पीछे क़ैद कोई परिंदा पिंजरे को आहिस्ता-आहिस्ता अपना घर समझने लगता है? रात दो पच्चीस पर नींद उचट गयी. आला किस्म की शराबें आहिस्ता चढ़ती हैं और आहिस्ता उतरती हैं. फिर ये नींद जो आहिस्ता आई थी जल्दी क्यों उचट गयी? नींद कमतर ही थी. क्या नींद को कोई नश्तर चुभता है. कौन जाग करके भाग जाता है. फ्रिज से पानी की बोतल लेकर पीने लगता हूँ. बहुत सारा पी लूँ कि पानी का नशा हो जाये. आँख फिर लगे. मगर कुछ एक ख़याल गिरहें बन कर कस जाते हैं. कोई सिरा फटकार की तरह दिल पर बरसता है. उलटे-सीधे, दायें-बाएं हर करवट मगर कहीं कोई आराम नहीं. तभी याद आया कि एक दिन पिंजरा भी घर लगने लगता है. तो क्या हम सब दुखों और तकलीफों के आदि हो सकते हैं. क्या सचमुच? मैं आँख मूंदे हुए मुस्कुराता हूँ. कुछ हल्का सा लगता है. उसके पेट पर रखा अपना बायाँ हाथ हटा लेता हूँ. शायद बोझ हो गया होगा. कहीं उसकी नींद न उचट जाये. सुबह की ठंडी हवा घर से होकर गुज़रती है. सोफ़ा से ...

जाने किसी और बात की

रेहा बहुत पीछे से याद करती है. उतना पीछे जहाँ से उसकी स्मृतियाँ शुरू होती हैं. शाम का धुंधलका डूब रहा था. चौक की दीवार में एक आला था. बहुत नीचे. लगभग वहीँ जहाँ से दीवार उठती थी. एक छोटी मूरत थी. काले रंग के पत्थर पर सुन्दर चेहरा था. बंसी साफ़ न दिखाई देती थी मगर थी. मूरत के आगे घी की चिकनाई फैली हुई थी. मूरत के ऊपर दीपक की लौ से बनी स्याही थी. माँ धुंधलके के डूबने की प्रतीक्षा कर रही थी. अँधेरा बढ़ा तो एक कांपती हुई लौ दिखी. श्याम मूरत और आला कभी-कभी टिमटिमाहट की तरह दिखने लगे. माँ ने अपनी हथेलियाँ आहिस्ता से हटा लीं. मूरत पर टिकी आँखें पढना चाहती थी कि क्या ये लौ जलती रहेगी. एक बार माँ ने पीछे देखा. रेहा चौक के झूले पर बैठी हुई माँ की तरफ ही देख रही थी. माँ फिर मूरत को निहारने लगी. माँ मौन में कुछ कह रही थी. या वह प्रतीक्षा में थी कि कोई जवाब आएगा. माँ रसोई से सब्जी की पतीली, रोटी रखने का कटोरदान, एक थाली, अचार का छोटा मर्तबान लेकर आई. रेहा झूले से उतरी और चटाई पर बैठ गयी. माँ मुस्कुराई. मगर इतनी कम कि ये न मुस्कुराने जैसा था. आले में दीया जल रहा था. मूरत ठहरी हुई थी. माँ ने ए...

केसी, क्या हो तुम?

एक लम्हा आता है, आह सुबह के काम पूरे हुए। फिर? फिर सम्मोहन की डोर एक खास जगह खींच लेती है। खिड़की, मुंडेर, कुर्सी या कोई कोना एक बिस्तर का। कोई गली में सूनी झांक, कोई किताब का पन्ना या टीवी पर कहीं से भी कुछ देखना। मगर वह चुप लबों, ठहरी आँखों और खोये मन में ढल जाती। वह अतीत के उस सिरे तक जाती जहाँ वह पिछली फुरसत में थी। जब उसे रोज़मर्रा के कामों ने बुला लिया था। मालूम है? जीवन को पीछे की तरफ देखने पर वह दूर तक फैला हुआ दिखाई देता है। वह उसी अतीत को पढ़ते जाने को पूरा करना चाहती थी। जैसे कोई आखिरी सीढ़ी पर खड़ा हो कब से इस इंतज़ार में कि ज़िन्दगी का पाँव फिसल जाए। कहानियां उतना नहीं रुला पाती जितना ज़िन्दगी। मगर मैं लिखता हूँ। सोचता हूँ मन हल्का होगा, न हुआ तो कुछ कहानियां अगले बरस किताब आने जितनी हो जाएँगी। लोग पढ़ेंगे, उदास होंगे और कहेंगे केसी, क्या हो तुम?