मिर्ज़ा ग़ालिब की वो बात याद है न? कहते थे नौकर नहीं हूँ मैं.
मैं सोचता हूँ कोई तो कुछ वजीफे छोड़ जाता हिस्से में कि कहानियां कहते, तनहा रहते, फाकों की चिंता न होती. हर महीने रूपया घर आ जाता. मन मुस्कराता है. ऐसा कहाँ होता है. मैं तो जहाँ से याद कर पाता हूँ वहां से जीवन जीने को नौकरी करने की ही चिंता दिखाई देती है. बड़े नौकर, छोटे नौकर और मंझले नौकर मगर पक्के सरकारी नौकर. यही नौकरी सुख की नांव है.
सुख ने सही वक़्त से पहले ही गलबहिंयाँ डाल दी थी. उसे पता था नाज़ुक दिल आदमी है ख़ुद को सता लेगा मगर कोई छल-प्रपंच न कर सकेगा. जियेगा, चाहे निचले दोयम हाल में ही जीना पड़े. कहीं किसी अख़बार में कुछ एक लेख लिखता. पुराने दुष्टों की झिडकियां सुनता रह न सकेगा इसलिए बार-बार नयी नौकरियों की ओर भागेगा. इस तरह का भागना इसे हताश करेगा. तो कुदरत और हालत ने बाईस साल की उम्र में रेडियो में बोलने की नौकरी पर लगा दिया.
नौकरी का ख़याल कल दिन भर पार्टनर के कारण रहा. छोड़ दो नौकरी या रिटायर हो जाओ का हिसाब इसलिए नहीं जमता कि ये पार्टनर कि अपनी चीज़ है. उसपर कोई हुक्म चलाना या दखल देना बेजा है. इसलिए कड़ी धूप में नीम की छाँव तले एक दिन बिताना कोई बड़ी बात न थी. इस पर भी अगर आप उस कमरे के आगे खड़े हों जहाँ कभी दसवीं की कक्षा हुआ करती थी. बहार खड़े हुए भी अन्दर का सब हाल मालूम हो कि किस तरह ब्लैक बोर्ड है, किस दीवार पर क्या लिखा होगा अगर चूने की पुताई न हुई हो तो.
सब कुछ बहुत पीछे छूट गया है. मालूम नहीं पीछे छूटा कहना ठीक है या खत्म होना. मगर अब नहीं है. शायद कहीं नहीं एक याद के सिवा.
शाम छत पर खड़े हुए तेज़ हवा के झोंके भी पसीने को नहीं सुखा पा रहे थे. गली के छोर देखे, पास के घरों कि छतों पर बिखरे सामान और धूप को देखा. अचानक देखा कि एक चिड़िया किसी मुंडेर पर बैठी थी. रेगिस्तान की तेज़ आंधी में थोड़ी सी दूर जाने को चिड़िया दूर तक उड़ी। उसने हवा के साथ कई कलाबाजियां खाईं, कई गिरहें बुनी और आखिर पहुँच गयी पास की जगह पर।
उसे देख ख़याल आया कि प्रेम का भी यही हाल है।
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