Skip to main content

जाने किसी और बात की

रेहा बहुत पीछे से याद करती है. उतना पीछे जहाँ से उसकी स्मृतियाँ शुरू होती हैं.

शाम का धुंधलका डूब रहा था. चौक की दीवार में एक आला था. बहुत नीचे. लगभग वहीँ जहाँ से दीवार उठती थी. एक छोटी मूरत थी. काले रंग के पत्थर पर सुन्दर चेहरा था. बंसी साफ़ न दिखाई देती थी मगर थी. मूरत के आगे घी की चिकनाई फैली हुई थी. मूरत के ऊपर दीपक की लौ से बनी स्याही थी. माँ धुंधलके के डूबने की प्रतीक्षा कर रही थी. अँधेरा बढ़ा तो एक कांपती हुई लौ दिखी. श्याम मूरत और आला कभी-कभी टिमटिमाहट की तरह दिखने लगे. माँ ने अपनी हथेलियाँ आहिस्ता से हटा लीं. मूरत पर टिकी आँखें पढना चाहती थी कि क्या ये लौ जलती रहेगी. एक बार माँ ने पीछे देखा. रेहा चौक के झूले पर बैठी हुई माँ की तरफ ही देख रही थी. माँ फिर मूरत को निहारने लगी. माँ मौन में कुछ कह रही थी. या वह प्रतीक्षा में थी कि कोई जवाब आएगा.

माँ रसोई से सब्जी की पतीली, रोटी रखने का कटोरदान, एक थाली, अचार का छोटा मर्तबान लेकर आई. रेहा झूले से उतरी और चटाई पर बैठ गयी. माँ मुस्कुराई. मगर इतनी कम कि ये न मुस्कुराने जैसा था. आले में दीया जल रहा था. मूरत ठहरी हुई थी. माँ ने एक बार फिर आले की तरफ देखा और थाली में साग रखा. माँ, रेहा को देखने लगी. जैसे पूछ रही हो हाथ धोये क्या? रेहा ने पलभर में अपनी हथेलियाँ दिखाईं. माँ उसकी नन्हीं हथेलियों को देखने लगी.

रेहा मुस्कुराने लगी.- “माँ हैं न एकदम साफ़?” 
“हाँ, अन्न ईश्वर का प्रसाद होता है. उसे साफ़ हाथों से ही छूना चाहिए.”
“देखो माँ, मैंने झूले पर बैठकर खाना छोड़ दिया. अब ईश्वर प्रसन्न रहेंगे. हमें उनके आसन से ऊपर नहीं बैठना चाहिए”
माँ मुस्कुराती है. रोटी का एक नन्हा सा टुकड़ा रेहा के मुंह में रखती है. 
रेहा उसे खाकर, भरे गले से कहती है- “नहीं माँ, मैं आप खाऊँगी” 
माँ रोटी को कोमलता से तोड़ती है. थाली में लगातार देखती है. साग को रेहा की तरफ सरकाती है. खुद हलकी मिर्ची वाली तरी में रोटी का टुकड़ा भिगोती है. 
“माँ ईश्वर सबकुछ देखते हैं? क्या वे हमको खाना खाते हुए भी?”
“हाँ. मगर पहले खाना खाओ हम बाद में बात करेंगे” 
रेहा धीरे-धीरे खाती है. माँ उसका साथ देती है. इसी तरह धीरे-धीरे.

माँ रेहा को अपने पास सुलाती है. इस तरह जैसे सबकुछ खो गया हो और यही आखिरी चीज़ उनके पास बची हो. रेहा के सर को चूमती है. उसको अपनी बांह में इस तरह छुपाती है कि रेहा के दोनों गाल माँ की बांह को दोनों तरफ से छूने लगते हैं.

“माँ”
“हूँ”
“क्या ईश्वर सबको खाना खाते हुए देखते हैं?”
“हाँ”
“माँ क्या इससे ईश्वर को प्रसन्नता होती है”
“हाँ”
“माँ क्या जब कोई खाना नहीं खाता उसे भी ईश्वर देखते हैं”

माँ चुप हो जाती है. वह कुछ देर सोचती है. छत में एक लकीर बन आई है. एक दरार है. जैसे कोई पतला धागा बेढब चिपका हुआ हो.

रेहा अपना सर उठाती है. माँ का चेहरा देखती है. वह अपनी दोनों हथेलियों से माँ के गालों को छूती है. अपने होठों से माँ को चूमती है.

रेहा की सुंदर छोटी आँखों में झांकते हुए माँ कहती है- “ईश्वर सबको देखता है. जब हम अच्छे काम करते हैं और जब बुरे काम करते हैं”
“हम बुरे काम क्यों करते हैं?”
“हमारा मन बहक जाता है, इसलिए हम बुरे काम करने लगते हैं”
“मन कैसे बहकता है?”
“जैसे प्याली में रखा हुआ पानी लुढ़क जाये.”
“और अगर मटका लुढक जाये तो?”
माँ रेहा को बाहों में भर लेती है. 
“जब हम बुरे काम करते हैं तब हमारा जीवन नष्ट हो जाता है. ठीक वैसे जैसे मटका लुढ़क जाये”
रेहा की आँखें कुछ और पूछती हैं. माँ कहती है- “अब सो जाओ” 
रेहा मन्द चहकती है- “ईश्वर को थेंक्यु बोलकर”

रेहा उनींदी स्वप्न देखती है. उसके मिट्टी के घोड़े की टांग टूट गयी है. वह उसे जोड़ना चाहती है. वह नहीं जुड़ती. भुरभुरी मिट्टी और ज्यादा गिरने लगती है. ईश्वर देख रहे हैं। वे कुछ नहीं करते. रेहा घोड़े को हथेलियों में रखती है. उसे रोना आता है. स्वप्न देखते हुए वह रोने लगती है. माँ रेहा को अपने निकट लेती है. उसके सर पर हाथ फेरती है. अपनी अंगुलियाँ उसके बालों में घुमाती है.

“क्या हुआ रेहा?”
अधखुली आँखों से रेहा माँ को देखती है. 
“क्या हुआ बेटा”
“माँ क्या ईश्वर घोड़े की टांग सही कर देंगे?”
माँ अपलक चुप देखती है. 
“ईश्वर ने घोड़े की टांग क्यों टूटने दी?”
“घोड़े ने कुछ गलत काम किया होगा. ईश्वर सबसे प्रेम करते हैं। वे किसी की टांग नहीं तोड़ते. घोड़े को उसके पाप का ही दंड मिला होगा.” 
रेहा नींद में खो जाती है.

अचानक माँ सोचने लगती है. ये छत की दरार किस बात का दंड है. क्या रेहा के पापा इस वक़्त जाग रहे होंगे? माँ जीवन के प्याले में रखे अपने मन तरल को लुढकने से सम्भालती है. ईश्वर का धन्यवाद करते हुए आँखें मूंदकर प्रतीक्षा करती है.

नींद की या जाने किसी और बात की...

[कागज़ के दो कप में स्ट्राबेरी फ्लेवर वाली आइसक्रीम- दो ]

Popular posts from this blog

टूटी हुई बिखरी हुई

हाउ फार इज फार और ब्रोकन एंड स्पिल्ड आउट दोनों प्राचीन कहन हैं। पहली दार्शनिकों और तर्क करने वालों को जितनी प्रिय है, उतनी ही कवियों और कथाकारों को भाती रही है। दूसरी कहन नष्ट हो चुकने के बाद बचे रहे भाव या अनुभूति को कहती है।  टूटी हुई बिखरी हुई शमशेर बहादुर सिंह जी की प्रसिद्ध कविता है। शमशेर बहादुर सिंह उर्दू और फारसी के विद्यार्थी थे आगे चलकर उन्होंने हिंदी पढ़ी थी। प्रगतिशील कविता के स्तंभ माने जाते हैं। उनकी छंदमुक्त कविता में मारक बिंब उपस्थित रहते हैं। प्रेम की कविता द्वारा अभिव्यक्ति में उनका सानी कोई नहीं है। कि वे अपनी विशिष्ट, सूक्ष्म रचनाधर्मिता से कम शब्दों में समूची बात समेट देते हैं।  इसी शीर्षक से इरफ़ान जी का ब्लॉग भी है। पता नहीं शमशेर उनको प्रिय रहे हैं या उन्होंने किसी और कारण से अपने ब्लॉग का शीर्षक ये चुना है।  पहले मानव कौल की किताब आई बहुत दूर कितना दूर होता है। अब उनकी नई किताब आ गई है, टूटी हुई बिखरी हुई। ये एक उपन्यास है। वैसे मानव कौल के एक उपन्यास का शीर्षक तितली है। जयशंकर प्रसाद जी के दूसरे उपन्यास का शीर्षक भी तितली था। ब्रोकन एंड स्पिल्ड आउ

स्वर्ग से निष्कासित

शैतान प्रतिनायक है, एंटी हीरो।  सनातनी कथाओं से लेकर पश्चिमी की धार्मिक कथाओं और कालांतर में श्रेष्ठ साहित्य कही जाने वाली रचनाओं में अमर है। उसकी अमरता सामाजिक निषेधों की असफलता के कारण है।  व्यक्ति के जीवन को उसकी इच्छाओं का दमन करके एक सांचे में फिट करने का काम अप्राकृतिक है। मन और उसकी चाहना प्राकृतिक है। इस पर पहरा बिठाने के सामाजिक आदेश कृत्रिम हैं। जो कुछ भी प्रकृति के विरुद्ध है, उसका नष्ट होना अवश्यंभावी है।  यही शैतान का प्राणतत्व है।  जॉन मिल्टन के पैराडाइज़ लॉस्ट और ज्योफ्री चौसर की द कैंटरबरी टेल्स से लेकर उन सभी कथाओं में शैतान है, जो स्वर्ग और नरक की अवधारणा को कहते हैं।  शैतान अच्छा नहीं था इसलिए उसे स्वर्ग से पृथ्वी की ओर धकेल दिया गया। इस से इतना तय हुआ कि पृथ्वी स्वर्ग से निम्न स्थान था। वह पृथ्वी जिसके लोगों ने स्वर्ग की कल्पना की थी। स्वर्ग जिसने तय किया कि पृथ्वी शैतानों के रहने के लिए है। अन्यथा शैतान को किसी और ग्रह की ओर धकेल दिया जाता। या फिर स्वर्ग के अधिकारी पृथ्वी वासियों को दंडित करना चाहते थे कि आखिर उन्होंने स्वर्ग की कल्पना ही क्यों की थी।  उनकी कथाओं के

लड़की, जिसकी मैंने हत्या की

उसका नाम चेन्नमा था. उसके माता पिता ने उसे बसवी बना कर छोड़ दिया था. बसवी माने भगवान के नाम पर पुरुषों की सेवा के लिए जीवन का समर्पण. चेनम्मा के माता पिता जमींदार ब्राह्मण थे. सात-आठ साल पहले वह बीमार हो गयी तो उन्होंने अपने कुल देवता से आग्रह किया था कि वे इस अबोध बालिका को भला चंगा कर दें तो वे उसे बसवी बना देंगे. ऐसा ही हुआ. फिर उस कुलीन ब्राह्मण के घर जब कोई मेहमान आता तो उसकी सेवा करना बसवी का सौभाग्य होता. इससे ईश्वर प्रसन्न हो जाते थे. नागवल्ली गाँव के ब्राह्मण करियप्पा के घर जब मैं पहुंचा तब मैंने उसे पहली बार देखा था. उस लड़की के बारे में बहुत संक्षेप में बताता हूँ कि उसका रंग गेंहुआ था. मुख देखने में सुंदर. भरी जवानी में गदराया हुआ शरीर. जब भी मैं देखता उसके होठों पर एक स्वाभाविक मुस्कान पाता. आँखों में बचपन की अल्हड़ता की चमक बाकी थी. दिन भर घूम फिर लेने के बाद रात के भोजन के पश्चात वह कमरे में आई और उसने मद्धम रौशनी वाली लालटेन की लौ को और कम कर दिया. वह बिस्तर पर मेरे पास आकार बैठ गयी. मैंने थूक निगलते हुए कहा ये गलत है. वह निर्दोष और नजदीक चली आई. फिर उसी न