क़फ़स भी हो तो बन जाता है घर आहिस्ता-आहिस्ता
याद तो क्या है, रेगिस्तान के अंधड़ हैं. नहीं आते तो नहीं आते. आते हैं तो फिर नहीं रुकते. क्या सचमुच तीलियों के पीछे क़ैद कोई परिंदा पिंजरे को आहिस्ता-आहिस्ता अपना घर समझने लगता है?
रात दो पच्चीस पर नींद उचट गयी. आला किस्म की शराबें आहिस्ता चढ़ती हैं और आहिस्ता उतरती हैं. फिर ये नींद जो आहिस्ता आई थी जल्दी क्यों उचट गयी? नींद कमतर ही थी. क्या नींद को कोई नश्तर चुभता है. कौन जाग करके भाग जाता है. फ्रिज से पानी की बोतल लेकर पीने लगता हूँ. बहुत सारा पी लूँ कि पानी का नशा हो जाये. आँख फिर लगे.
मगर कुछ एक ख़याल गिरहें बन कर कस जाते हैं. कोई सिरा फटकार की तरह दिल पर बरसता है. उलटे-सीधे, दायें-बाएं हर करवट मगर कहीं कोई आराम नहीं. तभी याद आया कि एक दिन पिंजरा भी घर लगने लगता है. तो क्या हम सब दुखों और तकलीफों के आदि हो सकते हैं. क्या सचमुच? मैं आँख मूंदे हुए मुस्कुराता हूँ. कुछ हल्का सा लगता है. उसके पेट पर रखा अपना बायाँ हाथ हटा लेता हूँ. शायद बोझ हो गया होगा. कहीं उसकी नींद न उचट जाये.
सुबह की ठंडी हवा घर से होकर गुज़रती है. सोफ़ा से उठकर रसोई की ओर जाता हूँ. मैं कहता हूँ. क़मर जलालवी साहब की ग़ज़ल सुनोगी? वो नाश्ता बनाते हुए कहती है- हाँ. मैं उनको कब मेरा नशेमन अहल ए चमन सुनाता हूँ. कुछ क़दम रसोई से बाहर रखता हूँ और फिर लौटता हुआ कहता है एक दूसरी ग़ज़ल का शेर सुनो.
इलाही कौनसा वक़्त आ गया बीमार-ए-फुरक़त पर
कि उठकर चल दिए सब चारागर आहिस्ता-आहिस्ता