केसी, क्या हो तुम?



एक लम्हा आता है, आह सुबह के काम पूरे हुए।

फिर?

फिर सम्मोहन की डोर एक खास जगह खींच लेती है। खिड़की, मुंडेर, कुर्सी या कोई कोना एक बिस्तर का। कोई गली में सूनी झांक, कोई किताब का पन्ना या टीवी पर कहीं से भी कुछ देखना।

मगर वह चुप लबों, ठहरी आँखों और खोये मन में ढल जाती। वह अतीत के उस सिरे तक जाती जहाँ वह पिछली फुरसत में थी। जब उसे रोज़मर्रा के कामों ने बुला लिया था।

मालूम है? जीवन को पीछे की तरफ देखने पर वह दूर तक फैला हुआ दिखाई देता है। वह उसी अतीत को पढ़ते जाने को पूरा करना चाहती थी। जैसे कोई आखिरी सीढ़ी पर खड़ा हो कब से इस इंतज़ार में कि ज़िन्दगी का पाँव फिसल जाए।

कहानियां उतना नहीं रुला पाती जितना ज़िन्दगी।

मगर मैं लिखता हूँ। सोचता हूँ मन हल्का होगा, न हुआ तो कुछ कहानियां अगले बरस किताब आने जितनी हो जाएँगी। लोग पढ़ेंगे, उदास होंगे और कहेंगे केसी, क्या हो तुम?

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