कितनी ही दफा कितने ही मौसमों से गुज़र कर दिल भूल जाता है. कभी-कभी हवा, पानी, ज़मीं और आसमान के बीच किसी एक ख़याल की छुअन होती है. ये छुअन मौसम की तासीर को अपने रंग में ढाल लेती है. तल्ख़ हवा, तपिश भरी ज़मीं, उड़ चुका पानी और साफ़ या भरा आसमान सब बदल जाते हैं.
कोई शहर किसलिए बुलाता है किसी को?
क्या कुछ कहीं छूट गया था? क्या कोई हिसाब बाकी था. क्या कोई नयी बात रखनी थी ज़िन्दगी की जेब में. फिर अचानक ख़याल आता है फटी जेबों और उद्दी सिलाई वाली जिंदगी के पास यादों के सिवा क्या बचेगा? अब तक यही हासिल है तो आगे भी...
पिछले सप्ताह के पहले दिन को मुकम्मल जी लेने के बाद एक लम्बी सांस आती है. याद से भरी सांस कि हाव यही वे लम्हे थे. दिल फिर उसी मौसम से गुजरता है.
जबकि कुछ ही देर पहले गुज़रा हो कोई अंधड़ सूखी पत्तियों की बारिश लिए। बूंदें गिरती हो कम-कम। इतनी कि भीग जाएँ और भीगा भी न लगे। दुकानें पूरे शबाब पर हों मगर गिरे हुए हों शटर आधे-आधे। जब दो अलग तरह के प्याले रखे हों एक साथ जैसे कोई दो अलग वाद्य आ जुटे हों एक जुगलबंदी को। जब सर रखा हो उसकी गोद में और आवाज़ बरसती हो आहिस्ता मीठे सलीके से और बत्तियां बुझती जाए बार-बार मगर ज़िन्दगी फिर से।
उस सबके लिए शुक्रिया कहना मना हो मगर बार बार कहा जाये कि...
तुम न समझोगे। छोड़ो।
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