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तुम पुकारना


तुम जब मिले उस साल बारिशें बेढब हुई थी. तुम जब गए थे, सड़कों पर बिछा स्याह कोलतार पिघल गया था. उसके बाद दूर तक कोई आवाज़ नहीं आती थी. अलाव तापते हुए लोग कम्बलों में ढके हुए रहते थे. उन्हें देखकर लगता था दुनिया ने स्वैच्छिक सेवानिवृति ले ली थी.

मौसमों का क्या है? वे हर रंग में आते हैं. मगर याद सिर्फ वे रहे जिनमें तुम्हारी कोई बात थी.

मुझे कई बार लगता है कि मेरे हाथ में कोई एक कलम है. फिर मैं बेहिसाब मुस्कुराता हूँ कि वह कलम कोई काम नहीं आती. मैं सिर्फ प्रेम करना जानता हूँ. लिखना क्या चीज़ है ईश्वर जाने. हाँ जिस रोज़ तुम मेरी बाहों से गुज़रोगे. मैं ठीक-ठीक पढ़ लूँगा तुम्हे जैसे दीवारों पर लिखी हुई बारिशें पढता हूँ.

तुम पुकारना- केसी. ये सुनकर मैं भले न रुकूँ मगर ठिठक ज़रूर जाता हूँ.

तस्वीर सौजन्य : सुप्रतिम दास फ़ोटोग्राफ़ी

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