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अगर फूल कह देता

कनॉट प्लेस के इनर सर्कल में एक पेड़ गहरे लाल फूलों से भरा समाधिस्थ था। हवा के झौंके आते। पेड़ के फूलों को चूमते और चले जाते। फूल इसी चूमने से प्रसन्न होकर हवा के पीछे उड़ने लगते। मैंने चाहा कि एक फूल को अपनी अंगुलियों से छूकर पूछूँ- "ये तुम किस ख़ानाबदोश के प्रेम में गिरे। तुमने सोचा तक नहीं कि हवा है और हवा का ठिकाना क्या है?" मैंने फूल को नही उठाया। इसलिए कि अगर फूल कह देता "बाबू, तुम क्या जानो प्रेम?" तो मैं क्या जवाब देता।

"बहुत गर्मी है।" कल दोपहर ऐसा कहते हुए आदमी ने पसीना पौंछ कर उदास मुँह बना लिया। उसके पास खड़े आदमी ने कहा- "हाँ" मैंने देखा कि दोनों आदमी स्वस्थ थे और एक मामूली सी गर्म रुत से परेशान थे। क्या सचमुच आदमी केवल सुख से छींके में पड़ा रहने को दुनिया मे आया है?

मैं जब छुट्टियों पर होता हूँ तब मुझे बेवजह पैदल चलना। नए लोगों को देखते जाना और शाम को दोस्तों के साथ बिता देना। बस यही अच्छा लगता है। आज की सुबह अच्छी है। बादल हैं। अचानक बारिश की छोटी बूंदें गिरने लगती हैं। मैं पैदल चलते हुए रुक कर सड़क पर चलते लोगों को देखता हूँ।

मेरे सामने तिपहिया सायकल पर एक असमर्थ लड़का गरदन को एक तरफ लटकाए हुए पड़ा था। उसकी सायकिल और उसमें कोई हरक़त नहीं थी। सामने से एक दूजा वैसा ही आदमी आया। वह अधेड़ उम्र का था। उसने अपना रिक्शा पास लगाया और पूछा- "क्या हुआ? तबियत ठीक नही? क्या बात है? बोलो बताओ?" लड़के ने कुछ जवाब दिया था। 

वह अधेड़ अपने रिक्शे को उसके पास ही लगाए रहा। उस अधेड़ की आंखों में हौसला था। वह उस हौसले को लड़के के साथ बांट रहा था। मुझे उस आदमी की याद आई जो कल अपने दो पैरों पर खड़ा था। स्वस्थ था और गर्मी को कोस रहा था। उसकी बेबसी और नाकामी याद आई।

असमर्थ असल में वह है, जो दूसरों का दुःख न पूछ सके।

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