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मालूम था कि तुम मेरे नहीं थे

तुमने मोहा, गले लगाया. चूमा. तुम गये तो ज़िन्दगी को आंसुओं, बेचैनी और इंतज़ार से भरकर गए. तुम न होते तो खाली-खाली जीवन को लेकर जाने कहाँ-कहाँ भटकना पड़ता.

जीवन को इतना आसान कर देने के लिए मेरे दयालु सद्गुरु तुम्हारा आभार. 
* * *

पुराने रेलवे स्टेशन से बाहर आने वाले गलियारे के आखिरी छोर पर सुबह उतर रही थी. रेलवे स्टेशन के सूनेपन को तोड़ने के लिए कोई न था. इतने बड़े शहर में भीड़ गुम थी. दायीं तरफ कुछ दूर आकर रुकी एक कार ने इस नीरवता को भंग किया. इसके साथ ही आगे पीछे से कुछ लोग गुज़रने लगे. ऐसा लगा कि ठहरे हुए समय की रुकी सुई को किसी ने आहिस्ता से छू दिया. और ठहरी ज़िन्दगी चल पड़ी.

अपने जूतों पर जमी बारीक धूल को देखकर ज़रा नज़र उठायी तो देखा कि कार के अगले दरवाज़े से एक आदमी उतर रहा था. पिछली खिड़की से एक हाथ हिल रहा था. दिल धक् से एक बार धड़क कर देर तक ठहरा रहा. तुम्हारी साफ़ कलाई से बंधी घड़ी का काला पट्टा किसी धागे की तरह चमक रहा था.

उस हाथ के सिवा कुछ नहीं दिख रहा था मगर जाने क्यूँ लगा कि तुम मुस्कुरा रहे हो. तुम्हारा मुस्कुराना सोचकर मेरी आँखें पनियल होने लगीं.

मैंने चाहा कि तुमसे रुख फेरकर वापस चलूँ. तुमको अभी बहुत जीना है. तुम कब तक दुःख उठाये फिरोगे. तुमको अभी ख़ुश रहना चाहिए. तुमको कहकहों से भरी पार्टियों और ख़ुशनुमा दोपहरों में हमउम्र लड़के-लड़कियों के साथ होना चाहिए. इसी सोच में मैंने जब सोचा कि तुम बेहद कमसिन हो. मेरे पैर ठहर गए थे.

छुअन से ख़यालों का ओपेरा टूट गया था. उस आदमी ने मेरे हाथ से थैला ले लिए था. वह मुस्कुरा रहा था. 
* * *

“आपकी ज़रूरत थी” इतना कहते हुए उसने सूटकेस खोला. उसमें से कुछ छोटी-बड़ी स्पायरल डायरियां निकाल कर बाहर रख दी. ग्रेफाइट की डिबिया से एक पतली सींक निकाली. मुड़कर पास आते कहा- “हो सके तो समझना कि ये मेरी ख़ुशी के लिए था.” 
* * *

बाद तेरे बरसों तक उड़ती रही धूल 
ज़िंदगी चुभती रही, बारीक कांटे सी.

जबकि मालूम था कि तुम मेरे नहीं थे. 
* * *

[Painting : Shanti Marie]

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