शाम और रात के बीच एक छोटा सा समय आता है। उस समय एक अविश्वसनीय चुप्पी होती है। मुझे कई बार लगता है कि मालखाने के दो पहरेदार अपनी ड्यूटी की अदला बदली कर रहे हैं।
उन्होंने मालखाने के ताले पर गहरी निगाह डाली है। इसके बाद चाबियों के गुच्छे की खनक के साथ चुप्पी टूट जाती है। दूर तक एक बीत चुके दिवस की स्मृति पसर जाती है।
जैसे खाली प्याले के भीतर चाय की याद।
* * *
मेरे गालों पर लाल लकीरें खींचने फिर सर्दी आएगी।
दस्तानों में अंगुलियां डालते मुझे एक गार्ड देख रहा होगा। जाने कितनी ही बार की कोशिश के बाद स्टार्ट होगा स्कूटर। तब तक शिफ्ट के बाकी लोग पहुंच चुके होंगे पास की कॉलोनी में अपने घर।
पहले मोड़ पे छूकर गुज़रेगी बर्फ। मैं सोचूंगा कि क्या इस वक़्त भी कोई क़ैदी जागता होगा जेल में। कुछ दूर आगे एसपी साहब की हवेली से आती होगी व्हाइट स्पायडर लिली के फूलों की मादक गंध। जिलाधिकारी के घर से दिख जाएंगे आदमकद स्वामी विवेकानन्द, अस्पताल जाने वालों को निर्विकार देखते अपने हाथ बांधे हुए।
मैं स्कूटर धीरे चलाऊंगा। मैं लम्बी सांसें लूंगा। मैं देखूंगा दूर तक कि कोई नहीं है और रास्ते सूने पड़े हैं। रात के सन्नाटे ज़िंदा कर देंगे, तन्हा सूना रेगिस्तान। मैं उसे बाहों में भर लूंगा आधी रात को।
हर बार जब भी सर्दियां आएंगी भीड़ छंट जाएगी जल्दी-जल्दी। मुझे रेगिस्तान में भीड़ अच्छी नहीं लगती।