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आस्ताने में दुबकी छाँव

धीरे से बादल चले आये. दोपहर में शाम का भ्रम होने लगा. 

बाहर निगाह डाली. खिड़की से दीखते सामने वाले घर की दीवार पर छाया उतरी हुई थी. एक गिलहरी ज़मीन की ओर मुंह किये लटकी थी. वह चुप और स्थिर थी मगर उसे इस तरह नीचे देखते हुए देखकर लगा कि वह है. उसे देखकर तसल्ली आई कि अभी सबकुछ ठहरा नहीं है. 

शहतीर के नीचे उखड़े प्लास्टर में बने घरोंदे से झांकते तिनके हवा के साथ हिल रहे थे. लोहे के जंगले पर बैठी रहने वाली चिड़ियाँ गुम थी. इस तरह बाहर झांकते हुए अचानक लगने लगा कि ये कोई स्वप्न है. वही स्वप्न जिसमें ज्यादातर खालीपन पसरा होता है. अचानक कुछ हमारे सामने आता है और हम उससे टकराने के भय से भरकर सिहर जाते हैं. 

मन भी ऐसे ही सिहर गया. अचानक लगा तुम खिड़की के आगे से गुज़रे.
इस दौर में हमारे पास कितना साबुत मन बचा है. उसकी उम्र क्या है. इसलिए कि हम जल्दी-जल्दी लिखकर, तेज़-तेज़ बोलकर, कैमरा पर फटाफट देखकर, बाहों में भर लेने जैसा सबकुछ सच्चा-सच्चा लगने सा जी लेते हैं. और शिथिल होकर बैठ जाते हैं. 

ठीक वैसे जैसे बादलों ने एक कड़ी दोपहर को छाँव से भर दिया हो. 

आँखें सामने दिखती दीवार को देखती रहती है. कान, दूर तक जाकर किसी आहट का पता कर आते हैं. चुप्पी है. आँखें मुंदने लगती हैं. कोई साया आहिस्ता से सीढियों को चढ़ता, खुली पतली बालकनी की ओर मुड़ जाता है. 

आँखें अचानक खुलकर खिड़की को एकटक देखने लगती हैं. कि वह साया दोबारा यही से गुज़रेगा. कोई नहीं गुज़रता. मन कहीं बहुत दूर किसी पुराने भव्य किले के द्वार पर जा बैठता है. बादल गुम गए हैं. दूर तक कड़ी धूप पसरी है. लम्बे दालान का फर्श गरम हो गया है. झरोखे खाली हैं. मेहराबें सूनी है. और कोई नहीं है. 

कोई नहीं. 

मन सोचता है यहाँ से उठ जाऊं. सामने सूने पड़े आस्ताने की तक चला जाऊं. वहां जाकर बैठ जाऊं. एक थकान रगों के रास्ते पूरे बदन में फैल जाती है. कि वहां बैठकर किसका इंतज़ार करना होगा. शाम कब तक आएगी. उसके बाद क्या होगा. क्यों कोई आएगा. कोई आया तो वो कौन होगा. क्या वह मेरे पास किसी खम्भे से पीठ टिकाकर बैठेगा. 

गिलहरी अब भी चुप है. नीचे देख रही है. जैसे हम अपने किसी प्रिय को बदलते हुए देखकर, हताशा में ठहर जाते हैं.

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