शाम के ढलने से कुछ पहले बची हुई कच्ची धूप में लम्बी परछाइयां सामने की दीवार को ढक लेती थी। इयरफोन से झरती बातों को सुनते हुए आर्म गार्ड रूम के पास तक के चक्कर काटते हुए, एक ढलती दोपहर को देखा कि बेरी पर लाल-पीले रंग मुस्कुरा रहे हैं। उस पहली बार देखने से ही लगा कि तुमसे मिलने का यही मौसम है।
दफ़्तर के भीतर आने पर मालूम होता कि कमीज़ की बायीं जेब में या कुर्ते के दाएं बाए या कभी जीन्स की अगली जेब में कच्चे हरे, आधे पीले या लाल बेर रखे हैं। बेर की ख़ुशबू से स्टूडियो भर जाता। कभी कुछ बेर घर तक साथ चले आते थे।
वे कभी टेबल, कभी छोटी अलमारी के ऊपर या बिस्तर पर पड़ी किताबों पर रखे मिलते। ऐसा लगता कि हमारी बातों के बचे हुए रंगीन छोटे कंचे रखे हैं।
एक रोज़ बातें ख़त्म हो गईं।
बेर मगर हर साल आते रहे। बेरी पर उनका रंग हंसता रहा। जैसे वो याद दिलाने का रंग बन गया कि यही तो वो मौसम था, जब उतरती धूप का मतलब था, तुम्हारा फोन आना। देर तक टहलते हुए बच्चों के बारे में सुनना। आर्ट क्लास में बीती दोपहर। सुबह छूट गई बस। खुले पैसे। और ये शिकवे भी कि दुनिया इतनी बड़ी क्यों है। लोग इतने दूर घर क्यों बनाते हैं।
कोई रूठकर चला जाये कहीं तो क्या होता है?
बेरियां फिर लद जाती हैं कच्चे बेरों से
याद करते हुए एक बरस और बीत ही जाता है।
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