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शब्द और रेखाओं से जनवाणी रचने वाला आदमी - रविकुमार स्वर्णकार

इससे पहले कि
हमारे मुख़ालिफ़ीन
सफ़्फ़ाकी से मुक़र्रर करें
हमारे लिए
सज़ा-ए-मौत

हम रूहों में तब्दील हो जाएंगे

०००००
रवि कुमार

वह एक सच्चा आदमी था. मैंने कल शाम उसके न रहने की ख़बर पढ़ी. मैंने अपने दायें बाएं देखा कि क्या वह चला गया है? पाया कि वह मेरे आस पास है. लेकिन जो प्रियजन उसे देख पाते थे वे उसकी छुअन से वंचित हो गए हैं. अब उसकी बाँहों के घेरे बेटे और बेटी को केवल स्मृतियों में ही मिल पाएंगे. उसके भीगे होंठ एक याद बनकर रह गए हैं. साथियों के कन्धों पर रखा रहने वाला हाथ एक भरोसा भर रह गया है.

मन तो कहीं न जा सकेगा लेकिन छुअन चली गयी है. 
* * *

अड़-अड़ के वाणी हुई, अडियल, चपल, कठोर।
सपने सब बिखरन लगे, घात करी चितचोर॥
चित्त की बात निराली
तुरुप बिन पत्ते खाली
चेला चाल चल रहा
गुरू अब हाथ मल रहा
सुनो भाई गप्प-सुनो भाई सप्प।

नाटककार कवि और संस्कृतिकर्मी शिवराम का निधन दो हज़ार दस में हुआ. उनके निधन के कुछ एक साल बाद अड़ अड़ कर आती वाणी कोमा में चली गयी, चेला ने गुरु को गुड़ कर दिया और ख़ुद शक्कर हो गया. एक दूरदर्शी ने इतनी सच्ची गप कही कि ज़माने ने दांतों तले अंगुली दबा ली.

शिवराम अक्टूबर दो हज़ार दस के पहले दिन गुज़रे थे. अभी हम उनको याद करते उससे पहले ही रवि कुमार न रहे.

मैं एक अद्वितीय व्यक्ति की याद से भर कर ठहर गया.

इसी तेज़ गति के संचार माध्यम फेसबुक में रवि कुमार से परिचय हुआ. रवि एक अद्भुत पाठक थे. वे किताबों के साथ-साथ आधुनिक माध्यमों पर गहरी नज़र रखते और अपनी सक्रियता बनाये रखते. यहीं से उनके बहुत सारे चाहने वाले बने कि रवि सदा बिना किसी आग्रह के अपनी रूचि से मेल खाती और एक प्रगतिशील समाज के उपयोगी पोस्ट्स को शेयर करते रहते थे. उन्होंने मेरी भी पोस्ट शेयर की तो उनसे बात हो गयी.

आप कोटा से हैं? 
हाँ रावतभाटा रहता हूँ 
अच्छा 
आप रावतभाटा से परिचित हैं? 
हाँ वहां थर्मल में हंसराज चौधरी काम करते हैं. वे मेरे प्रिय जनकवि हैं. मैं उनसे बहुत बार मिला हूँ. 
अहा ! - एक विस्मयबोधक उग आया. 
थोड़ा रुक कर रवि ने पूछा- कोटा में किसे जानते हैं? 
मैंने कहा - शिवराम जी को. 
रवि को और अधिक अचरज होने लगा. उन्हने मुस्कुराते कहा- "वे मेरे पिता हैं."

हमारे बाड़मेर शहर में नाटकों की लम्बी परम्परा रही है. हालाँकि देश में शायद ही कोई ऐसा क़स्बा होगा जहाँ नाटक न खेले जाते रहे हों. यहाँ बाड़मेर में एक बहुत बड़ी और दीवाना टीम काम करती रही. इनमें गोपी किशन शर्मा ऐसे नाट्य निर्देशक और अभिनेता थे, जिन्होंने शहर को एक ऐसा नाटक कभी भूलने न दिया जो इमरजेंसी से पहले लिखा गया. जनता पागल हो गयी है.

समय के साथ उम्र घेरे डालती रही और बाड़मेर में कलाकार अस्वस्थ होते गए, उनका मन टूटता गया लेकिन गोपीकिशन जी लोहे के बने हुए थे. उन्होंने इतने गंभीर नाटक को जनता की स्मृतियों से लोप न होने दिया. उन्होंने अपने स्वास्थ्य की, सरकारी काम की और परिवार की चिंता न की. इसलिए मेरे मन में गोपी जी के लिए सदा गहरा आदर बना रहा. गोपी जी ने शिवराम जी की स्मृति और लेखन को ज़िन्दा रखा.

जनता पागल हो गयी है, लिखने वाले शिवराम की वट छाया में बड़े होना कठिन काम था. ये असम्भव ही था कि इतने बड़े लेखक और जन संस्कृतिकर्मी और आन्दोलनकारी के घर में जन्म लेकर अपनी अलग पहचान बना सके. लेकिन रवि एक बेहतरीन चित्रकार थे. सुंदर और मन को छू लेने वाली कविताएँ लिखते थे. वे आत्मा के द्वार को खटखटाने वाले शब्द उकेरते रहते थे. साहित्यिक और सामाजिक आंदोलनों में अथक कम करते थे. उनकी अपनी प्रतिभा इतनी बड़ी थी कि वे पिता के ऊंचे कद के साथ बड़े होते गये. उनकी अपनी छवि और पहचान बनती गयी. ये भी सच है कि मैं रवि से प्रेम इस कारण नहीं करता था कि वे शिवराम जैसे बड़े आदमी के बेटे हैं. बल्कि इसलिए कि वे ख़ुद बड़े हैं. मुझे तो ये बहुत बाद में मालूम हुआ था कि रविकुमार स्वर्णकार के पिता कौन हैं.

फेसबुक पर कविता पोस्टर एक तरह का जन आन्दोलन ही है. अनेक लोग कविता पोस्टर बना रहे हैं. ये सब लोग सोच से रूढ़ीवाद के विरोधी हैं. स्त्री अधिकारों के समर्थक हैं. ये गरीब के लिए न्याय की बात करने वाले हैं. इसलिए ऐसे लोगों के चाहने वाले भी असंख्य हैं. रवि के बनाये पोस्टर अनगिनत लोगों की वाल पर शेयर होते गए. रवि से प्रेम करने वाले भी बेहिसाब हुए.

रवि ने शिवराम के लेखन को डिजिटल किया. एक पिता को अपने पुत्र के लिए कभी आभारी नहीं होना पड़ता है लेकिन रवि ने शिवराम जी के काम को इस तन्मयता से डिजिटल किया कि अब इस काम को आगे ले जाने में अगली पीढ़ी को कोई विशेष परिश्रम न करना पड़ेगा. ये सब देखकर शिवराम जी की आत्मा संतोष से भर गयी होगी. उन्होंने अक्सर लम्बी और सुख भरी साँसे ली होंगी कि रवि जैसा पुत्र होना उनके जीवन का सबसे बड़ा उपहार रहा.

मैं एक हड़बड़ी में बहुत कुछ लिखना चाहने के कारण बेतरतीब होता जा रहा हूँ. मुझे जो कुछ अचानक याद आ रहा है लिख देना चाहता हूँ लेकिन कितना कुछ लिखा जा सकता है.

एक ऐसे समय में
जब लगता है कि कुछ नहीं किया जा सकता
दरअसल
यही समय होता है
जब कुछ किया जा सकता है

जब कुछ जरूर किया जाना चाहिए.

रवि की इस कविता को पहले भी पढ़ा था. आज भी पढ़ा है कि इस दुनिया में दो ही तरह के लोग होते हैं. वे वैसे ही रहते हैं. एक ज़िन्दा और एक मुर्दा. उनकी पहचान जीवन और जीवन के बाद भी यही रहती है. तुम ज़िन्दा इन्सान थे, तुम अब भी ज़िन्दा ही हो.

मैं जीवन पर भरोसा नहीं करता हूँ. इस बात पर अवश्य करता हूँ कि जब तक जीवन है, प्यार करते रहो और समाज को आगे ले जाने वाली बातों के साथ खड़े रहो. जातिवादियों, धार्मिक उन्मादियों और आतंकवादियों के नाश के लिए अपना योगदान देते रहो. कि ये दुनिया रामजी की है और हम सब रामजी की चिड़िया हैं. दाना चुगकर उड़ जाएँ उससे पहले सब प्रेम और भाईचारे से रह सकें.
रवि का जीवन ध्येय था एक बेहतर मनुष्य बनना. वो आदमी बेहतर मनुष्य ही था, रवि के लिए कोई अंतिम सलाम नहीं है. मेरा दिल जब तक धड़केगा इस आदमी को सलाम बजाता रहेगा.
 
मुझे रवि के परिवार की इस तस्वीर को ही साझा करना चाहिए कि बेहतर मनुष्य बनना इसलिए आवश्यक हैं कि हम अपने परिवार और समाज से समान रूप से प्रेम कर सकें. रवि ने सामाजिक कार्यों में अपना जो समय दिया है ,उससे परिवार में जो कम समय बचा, उसी समय की एक मीठी तस्वीर है. मैं रवि को याद करते हुए अचानक उन दो छोटे बच्चों में बदल गया हूँ जो अभी पिता को याद कर रहे हैं. जिनके दिल में आंसू लबालब भरे हैं. जिनकी रुलाई रुक नहीं रही.

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