"बीपी रो की है? बे-तीन दिन सुई रह्यो. आराम करो. गरम होयोड़ी मशीन ठंडी होव्ते ही तेल फेंकणों अपने आप बंद करे. ऐ ईज है बीजो डॉक्टर होस्पिटल जाए खोटी होव्णों" - कालू जी खत्री, साकीन नेहरू नगर बाड़मेर.
पिताजी की पोस्टिंग जब रेलवे स्कूल में थी तब अमरी बाई जी भी वहीं पोस्टेड थी. कभी किसी स्कूल के काम से वे घर आई. उन्होंने मुझे देखकर पूछा- "माड़सा है? जा के अमरी बुआ आई" पिताजी आये और उन्होंने कहा- "आओ अमरी बाईजी" मैं अमरी बाई जी को स्कूल में देखता था लेकिन घर पर पहली बार देखा था. इसके बाद से हमारे पास उनके लिए उम्र भर का एक सम्बोधन आ गया, अमरी बुआ.
नेहरू नगर में स्टेडियम के पास नीलकंठ फैक्ट्री के नाम से एक कारखाना बना हुआ था. सालेचा परिवार के इस विशालकाय उपक्रम में बेंटोनाईट यानी मेट माने पीली चिकनी मिट्टी के ढेलों को पीसा जाता था. मोहल्ले की औरतें अपने बालों को चिकनी मिट्टी से धोने के लिए इसी कारखाने से मेट लाया करती थी. मेरी माँ ने भी कई बार मेरे बाल मेट से धोये थे. गर्मी के दिनों में चेहरे पर फुंसियाँ होते ही या सर में दाने पड़ने पर बच्चों को मेट के लेप से पोत कर बिठा दिया जाता. वानर बना हुआ बच्चा दूसरे बच्चों के उपहास का पात्र बनता लेकिन कुदरत का न्याय इतना समान था कि इस उपचार से कोई बच नहीं नहीं पाता था. एक दिन हर किसी को ये रूप धारण करना ही पड़ता था.
फैक्ट्री के सामने बायीं तरफ ढलान में अमरी बाई जी का घर था और दो गली ऊपर हमारा घर. आस पास छोटी बसावटें थीं. लगभग सौ के आस भील, इतने ही मेघवाल, लुहार घर थे और इनके बीच दो चार राजपूत, आठ दस जाट, दो एक कुम्हार परिवार रहते थे. सौ एक घर सिन्धी परिवारों के थे. जिसे वे नेहरू नगर न कहकर नेहरू नगर की सिन्धी कॉलोनी कहते थे. जिस तरह छद्म राष्ट्रवादी एक अविभक्त भारत की कल्पना करते हैं, उसके उलट नेहरू नगर वाले सिन्धी कॉलोनी को अपने राज्य में मिलाने का स्वप्न नहीं देखते थे. वे उसे सिन्धी कॉलोनी ही रहने देना चाहते थे. शायद वे नहीं चाहते थे कि आपस में घुलना मिलना हो. इसकी कई वजहें हो सकती थी लेकिन मुझे कभी समझ न आई. मुझे बस एक यही फर्क समझ आता था कि धुले हुए कपड़े सिंधियों के घरों के आगे और बाक़ी लोगों के घरों के पिछवाड़े में सूखते रहते थे.
खत्रियों का वास तो शहर में नरगासर के आस पास है लेकिन अमरी बाई जी का परिवार नेहरू नगर में कब और कैसे आकर बसा ये मुझे याद नहीं है. पहली बार उनके घर मैं खीचिये लेने गया था. रेगिस्तान के खाखरों के मुकाबले पाकिस्तानी पंजाब और सिंध के लोगों का खीचिया पापड़ मुझे काफी फीका और बेस्वाद लगता रहा था. मोठ और मूंग जैसी दालों से बनने वाले खाखरे पापड़ स्वाद में सदा बीस ही लगे. दादी के कठोंन्तरे में ऐसे सूखे पापड़ रखे रहते थे. मेरी याद में रहा है कि जब कभी गाँव जाना हुआ तब ही खाखरे देखने और सुनने को मिले. असमय लगने वाली भूख के लिए ये सर्वोत्तम भोजन है. खीचिया भी ऐसा ही है लेकिन ये चावल के आटे से बनाया जाता है. अमरी बाई जी के घर खीचिया बनाने का कुटीर उद्योग था. मांग और आपूर्ति में काफी फर्क था. कभी-कभी ऑर्डर देकर खीचिये रिजर्व करने होते थे. हमारे घर में खीचिये इसलिए मंगवाए जाते थे कि वे आगे किसी ने मंगवा रखे होते थे. इस तरह हम अमरी बाई जी के यहाँ बने खीचियों के छोटे कुरियर थे.
अमरी बाई जी का कद ऐसा था कि मोहन जी को हम जानते ही नहीं थे. मैंने उनको बहुत कम देखा. वे जब भी दिखे एक छड़ी के सहारे धीरे चलते हुए दिखे. उनका परिवार बड़ा हो गया था लेकिन काल असमय पंजे मारता रहा. मोहल्ले भर में अमरी बाई जी के दुःख भी बड़े कहे जाते रहे. बाद बरसों के उस परिवार में सबसे बड़े बचे कालू जी माने पुरुषोत्तमदास खत्री.
दरमियाना कद का सीधा तनकर चलता हुआ मुस्कुराता हुआ आदमी, यही उनकी पहचान थी. सर पर पीछे की ओर मुड़े बालों का सुघड़ घेरा इस पहचान को पक्का करता था. वे पैदल कम ही चलते थे. साढ़े तीन सौ सीसी की बाइक की सवारी करना उनको पसंद था. कभी-कभी मैंने उनको कार में भी देखा. इन दिनों कालू जी की उम्र क्या रही होगी मुझे ठीक नहीं मालूम मगर वे साठ बासठ के होंगे. इसलिए कि वे मेरे पिताजी से दस बारह साल छोटे और मुझसे इतने ही बड़े रहे होंगे. अमरी बुआ थी मगर कालू जी मुझसे बहुत बड़े थे इसलिए हमारे बीच कोई स्थायी सम्बोधन न बन सका. वे मुझे देखकर आँखों से मुस्कुराते थे. मैं उनको नमस्ते करके आगे बढ़ जाता था.
नेहरू नगर में जिन दिनों रेलवे ओवर ब्रिज न बना था तब फाटक की ढलान से उतरना हर तरह के अनुभव देता था. इसमें रोमांच था, आनंद था और जब गाड़ी ने अधिक हाइड्रोलिक ले रखा हो तब कठिनाई भी थी. ब्रेक तेज़ी से लगते थे और दुर्घटना का खतरा बढ़ जाता था. ठेकों से, ढाबों की दोपहर की महफ़िलों से या रेलवे पटरी के पास उगे बबूलों की छाया में हाइड्रोलिक लेकर आने वाली तमाम सवारियां रेल फाटक की ढलान में जीरो स्पीड में आ जाती थी. एक दोपहर ऐसी ही स्पीड में कालू जी उतर रहे थे. पटवार घर के पास मैंने अपनी बाइक धीरे की, उनके पास रुका. वे मेरे आशय को समझ गए और बाइक पर सवार हो गए. मैं घर तक आया तो बोले "ठीक है. आगे रैण दे.?" मैं उनको एक गली आगे घर तक पहुंचा आया. वे बाइक से उतरे और प्रबुद्ध गौतम की तरह तरह मुस्कुरा कर अपने घर की सीढी चढ़ गए.
कालू जी के जीवन में बहुत सारी चीज़ें थी. वे सब लगभग आसान थी या जीवन को आसान बनाये रखने का रास्ता बनती थीं. उनके बड़े बेटे हेमंत से अब मेरी गहरी मित्रता है तब केवल पहचान थी. हेमंत की शादी हो रही थी. खत्रियों में एक वैवाहिक परम्परा है कि शादी से पहले जनेऊ पहना हुआ लड़का घर से रूठ कर निकल जाता है. पिताजी उसको मनाकर घर लाते हैं. घर लौटने से पहले दूल्हा एक शर्त रखता है. उसे मानने पर वह घर लौट आता है. कालू जी हेमंत को मनाने गए. हेमंत ने कहा "हूँ कोनी हालों" कालू जी ने कहा- "चाईजे की? ओ कै" हेमंत ने कहा- "दारु पीणी छोडो" कालू जी ने कहा- "हऊआ इत्ती बात. छोड्यो हाल" हेमंत शादी करके आ गया. तीसरे दिन कालू जी शादी समारोह की थकान उतार रहे थे. हेमंत ने पूछा - "ऐ की है?" कालू जी ने कहा- "बीयर है दारु थोड़ो ईज है"
स्थायी और अधिक फलदायी रोज़गार के अभाव में और अनिश्चित कल के बावजूद कालू जी के चेहरे की मुस्कान को कोई चीज़ मिटा नहीं पाई. जब कठिनाई आई तो कहा. आई है तो बैठी रहेगी. अपने आप थककर चली जायेगी. हम इसके आने से जीना स्थगित नहीं कर सकते. चलो काम पर. काम किया. शाम को मूड बनाया. खाना खाया सो गए. घर में असामयिक निधन होते गये. कालू जी बिना घबराए. वैसे ही दीखते रहे. घरवाले शिकायतें करते कि मनमौजी आदमी है. जो करना अपने मन का करना. कालू जी इससे बेपरवाह रहते. अक्सर जवाब नहीं देते. घर में उनका स्वभाव कैसा था नहीं मालूम मगर उनको नए के प्रति आकर्षण केवल इतना था कि बाइक पावरफुल होनी चाहिए. वासु से कहते- "बढ़िया गाडी लईजे, म्हे हूँ ऐ छोटके को च्लाईजे" इन दिनों कोई डेढ़ एक लाख कीमत वाली बाइक पर दीखते थे. कुल चार चीज़ें दिख पाती थी. एक तगड़ी बाइक दूजी ऊँची मूंछें, फिर स्थिर मुस्कान और शांत चेहरा.
कालू जी साल भर पहले तक दल्लू जी की रेलवे स्टेशन के सामने वाली नई दुकान पर नियमित जाया करते. विकास को देखते ही कहते- "थने ठा है? आज म्हारो बर्थडे है" विकास पूछता - "तो" कालू जी कहते -"तो थने ठा है" विकास उनकी पसंद की मावे की बर्फी के दो पीस देता. कालू जी मावे का स्वाद लेकर तृप्त हो जाते. वे विकास से कहते- "म्हनें दाळ रो सीरो बढ़िया लागे. सौ डेढ़ सौ ग्राम खाऊं तो बीपी बढे री. पछे तीन दिन सुउणों पड़े" विकास कहता- "पछे खावो ईईज क्यों?" कालू जी विकास को देखकर मुस्कुराते. "बीपी रे कारण दाळ रो सीरो छोडों पो?"
कालू जी के बच्चे धंधे लग गये. बढ़िया काम करने लगे. व्यवहार अच्छा था तो हेमंत की पान की दूकान का कारोबार जम निकला. साइड में कुछ छोटे मोटे जमीन के काम किये. धीरे से घर बड़े मकान और कार तक आ गया. हमारे यहाँ कहते हैं कि खत्रियों को कत्थे और कत्थई रंग के धंधों का वरदान कुलदेवी ने दिया हुआ है. लगभग खत्री पान और प्रिंटिंग का कारोबार करते हैं. कुछ एक का व्यापार विदेशों तक पसर गया है. वे बड़ी कोठियों वाले ज़मीदार लोग हो गए हैं. कुछ एक अब भी गरीबी की निचली रेखा के नीचे खींची हुई रेखा के पास जीवन बिता रहे हैं. इधर कालू जी के घर के आगे बड़े फ्रीज़ जमा होने लगे. स्टेडियम जाते समय ख़राब डीप फ्रीजर उनपर गिरे पड़े छोटे फ्रीज़ दिखने लगे. ये काम उन्होंने कब शुरू किया होगा मुझे याद नहीं लेकिन इतना मालूम हो गया था कि वासु इस काम को करते हैं. पापा उसका साथ देते हैं. बढ़िया काम है. तीन चार महीने के सीजन में माल छाप लेते हैं. बढ़िया कमाई देने वाले भी शराब के ठेके वाले हैं. जिनके यहाँ बीयर ठंडी करने को डीप फ्रीज़र हमेशा ओके चाहिए. वे मेहनत मजदूरी चुकाने में भी हील हुज्जत नहीं करते.
ज़िन्दगी आसानी से बिताने के लिए बड़ा हुनर चाहिए होता है. ये हुनर है गाँठ का भार कम रखो. कालू जी ने कभी गाँठ बाँधी ही नहीं. ख़राब दिन को भुला दिया और अच्छे दिन की जी हजुरी नहीं की. अभी कुछ समय से तबियत ख़राब थी. डॉक्टर के पास जाने के नाम पर महाआलस उन पर सवार हो जाता. बच्चे कहते- "पापा हालो" वे कहते- "हालों घंटे भर बैठ" बच्चों का अपना काम उनकी अपनी जिद. महींने भर पहले अधिक तबियत खराब हुई तो वासु ले गया. दो चार दिन बाद लौटने पर मालूम हुआ कि अब पापा ओके हैं. कुशल क्षेम पूछने वालों को कहने लगे- "है की डॉक्टरों गोढ़ी? कैण सारु गोता खावों. मशीन रुकी तो इयों रे काके हूँ कोनी बंधे. उवेरी बंध्योड़ी ओ ईज जोणे" प्रियजन कहते- "तो ई ध्योन तो राखो" कालू जी मुस्कुराते "माथाफोड़ी नी करणी. छोकरियां आपरे घरे राज़ी, छोरा ठीक धंधे लाग्या"
कल सुबह तीन बजे के आस पास कालू जी को एक उल्टी हुई. डॉक्टरों ने कहा कि रेस्पिरेटरी सिस्टम चौक हो गया. इस कारण साँस नहीं ले पाए. दोपहर से शाम तक कालू जी के घर के बाहर उनके प्रियजन जमे रहे. मुझे लगता रहा कि वे अभी आयेंगे और कहेंगे "म्हे कयो हतो नीं, कईं ठा नी पड़े. आपां आयल फेंकण री चिंता करता ऐ तो एयर पाईप चौक होयो."
हेमंत को मैंने कुछ एक बार चिंता की सलवटें लिए देखा लेकिन कल वह पिता की स्मृति से भीगा हुआ खड़ा था. उसके हृदय में कोई रुलाई थी जो फूट न सकी. मैंने कुछ महीने पहले एक कहानी कही थी. हमारे बचपन की कहानी. उसमें मेरा दोस्त कहता है कि काका भले ही पीटते मारते डांटते हों पर होने चाहिए. मेरे जीवन से तो बहुत पहले मगर कल वह डांट हेमंत और वासु के जीवन से चली गयी.
कालू जी के लिए रेस्ट इन पीस और उनकी आत्मा को शान्ति मिले लिखने की ज़रूरत नहीं है कि वे जहाँ होंगे शांति उनके चेहरे से झलक रही होगी. वे परमानन्द के साथ जिस तरह जीए वैसे ही मस्तमौला आगे भी रहेंगे.
"हमें की? आगे जोवो, काम करो. हालो"