नई दिल्ली एक दीवार पर ऊंट

रेगिस्तान में ऊंट भिक्षु नहीं एक साधु था। उसने हमारे दुःख ढोये। उसने रास्ता दिखाया। रेगिस्तान वालों ने अपने लोकगीतों में ऊंट को जी भर गाया। गहरे मन से नवाजा। "घोड़लो बँधावां गढ़ री भींत, करियो बँधावां हाँ जी कोटड़ी।" अश्व तो गढ़ की दीवार के पास बंधे रहें लेकिन हमारा नौजवान ऊंट कोटड़ी यानी मेहमानख़ाने के पास ही बंधेगा।

जिस तरह प्रेम एक स्मृति और प्रतीक्षा है, उसी तरह रेगिस्तान के दिल में ऊंट है।