विरह के प्रेम में जो सुख है वह बाहों में बसे रहने से अधिक मीठा है। ये मीठी टीस दूर होने पर खिलती है। दूर होने पर बदन में शिथिलता आ जाती है। हृदय एक भरे हुए चड़स की तरह आहिस्ता हिलता है। हाथों की अंगुलियां प्रेम नाम लिखने में स्वयं को असमर्थ पाती है। आंखें सूने आकाश और धूसर धरती की रेख को देखती हुई सो जाती हैं।
इसी तरह आधी नींद और जाग में उसके बदन से उठते मादक वर्तुल अचानक हम पर गिर पड़ते हैं तो अधीर और व्याकुल होकर खालीपन के प्रेम तरल में डूब जाते हैं। मन उसके पास जाना चाहता है कि याद आता है असल चाहना तो दूर रहने से ही है। ये गहराई विरह की कुदाल से बनी है। ये धूल का ऊंचा वर्तुल बिछोह से बना है।
इसलिए दूर रहना ठीक है।
कृष्ण भक्त कवियों में कुम्भनदास कृष्ण प्रेम में विरह के कवि थे। एक बार बादशाह अकबर के बुलावे पर चले गए तो उम्र भर पछताते रहे। अकबर से उन्होंने कहा "संतन को कहाँ सीकरी सों काम, आवत जावत पहनिया टूटी बिसरी गयो हरिनाम" वे कुम्भनदास गोकुल के आस पास ही रहते थे लेकिन कृष्ण प्रेम में वहां कम ही जाते थे। उनको कृष्ण के यहां लिए चलने को आतुर लोग अक्सर निराश हो जाते कि कृष्णप्रेम में विरह का कवि कैसे अपनी कथनी और करनी से फिर जाता।
केते दिन जु गए बिनु देखैं।
तरुन किसोर रसिक नँदनंदन, कछुक उठति मुख रेखैं।।
स्याम सुँदर सँग मिलि खेलन की आवति हिये अपेखैं।
‘कुंभनदास’ लाल गिरिधर बिनु जीवन जनम अलेखैं।।
ओ कान्हा तुमको देखे बिना कितने दिन बीत गए हैं। तरुण किशोर तुम रस प्रिय, नंद के नंदन, तुम्हारा दर्शन दुर्लभ हो गया है। सलोने श्याम के साथ मिलकर खेलने के स्मृति हृदय में पैठ जाती है। तुम्हारे बिना इस कुम्भन का जीवन कुछ कहने जैसा नहीं है।
विरह के काव्य में मिलने की आशा की कविता अनगिनत कवियों/कवयित्रियों ने कही है किन्तु ये प्यारा कवि उस चाहना से हटकर है। इसी कवि की तरह मुझे बिछोह की कहानियां लिखने में सुख है। लेकिन जब-जब मैं आस-पास होता हूँ कहानियां कहने का मन मर जाता है।