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अकेलेपन की बारूदी सुरंगें

किसी के एकांत में अपनी इच्छाओं के बीज मत फेंकना.

एक लड़का तीन बार फ़ोन कर चुका था. उसे मुझसे अपने उपन्यास के बारे में बात करनी थी. एक बार मेरे पास समय न था बाकी दोनों बार मेरा मन न था. मैं छोटी-छोटी बातों से रेस्टलेस होने लगता हूँ. इसके बाद सामान्य होने में बहुत समय लगता है. कई बार तो वह बात मेरे मन से जाती ही नहीं कि ऐसा क्यों हुआ. अपने आप को समझा लो, डांट लो, कोस लो लेकिन छीजने की अपनी प्रक्रिया है और वह उसी तरह से होता है. मैं उसे समय न दे पाया. दो तीन दिन बाद माँ ने आवाज़ दी कि कोई मिलने आया है. दोपहर के दो बजे थे. मैं दरवाज़े तक गया तो पाया कि एक लड़का खड़ा है. उसने अभिवादन किया. "सर मेरे को आज वापस अहमदाबाद जाना है. आपसे मिले बिना जाने का मन न था इसलिए चला आया."

हम अपने लिविंग रूम में बैठ गये. उस कमरे में माँ का छोटा पलंग है. रजाई और गरम कपड़े रखने का बड़ा संदूक है. एक सोफ़ा से बिछड़े हुए दो कुर्सी जैसे सोफे हैं. एक तरफ दीवार में बनी अलमारियों में कुछ एक किताबें रखीं हैं. उन दो अलमारियों के बीच पिताजी की तस्वीर टंगी है. पिताजी की मोनालिसा मुस्कान को घेरे हुए प्लास्टिक के फूलों की माला है. उस पर बारीक गर्द जमी रहती है.

मैं उसके लिए पानी लेकर आया तब उसे कमरे का मुआयना करते हुए पाया. वह चीज़ों को देख रहा था. उसे इस तरह देखते हुए मुझे अच्छा लगा. मैं आश्वस्त होने लगा कि ये लड़का ज़रूर कहानी कह सकेगा. इसके पास एक दृष्टि है, जिससे ये आस-पास को देख सकता है. फिर मैंने सोचा कि कितना देखता है? इस बात पर मेरी आशा जाती रही. असल में वस्तुओं को देखना और वस्तुओं के भीतर तक देखना दो अलग बातें हैं. इससे पहले वस्तु को देखना और वस्तु को समग्र देखना भी एक अलग बात है. क्या इसने इस कमरे में रखी वस्तुओं को पहले खुली आँखों से और फिर बंद आँखों से भीतर तक देखा है?

"सर मैं एक उपन्यास लिख रहा हूँ. उसके बारे में आपसे बात करनी थी. मैंने जो लिखा है वह आपको दिखाना चाहता हूँ"

मैंने कहा- "एक पंक्ति में कथानक बताओ"

उसने कहा- "सर मेरी कहानी यहाँ से आरम्भ होती है. इसके मैंने तीस पन्ने लिखे हैं"

मैंने कहा- "आप मेरी बात समझे नहीं. किसी भी कथा को पहले एक पंक्ति में कहा जाना चाहिए. जैसे मैंने एक कहानी कही "अंजली तुम्हारी डायरी से बयान मेल नहीं खाते" इस कहानी के बारे में मुझे कोई पूछे तो मैं कहूँगा कहानी में कहना है कि स्त्री शोषण को पुरुष समुदाय एक राय ही नहीं वरन एकजुट भी रहता है"

उस लड़के ने कहा- "आप मेरा लिखा हुआ पढ़ लें तो आपको समझ आएगा. आगे मैं आपको बताऊंगा." सहसा रुक कर उसने थोड़ी अधिक उत्सुकता से कहा- "मुझे ये जानना है कि मैं ठीक लिख रहा हूँ या नहीं."

मैं मुस्कुराया. "आप ज़रूर ठीक ही लिख रहे हैं इसलिए कि आप लेखन को लेकर इतने प्रतिबद्ध हैं कि तीन बार फ़ोन पर हाँ नहीं कहने के बाद भी आप यहाँ तक आये."

"तो सर आप पढेंगे"

"हाँ ज़रूर पढूंगा मगर सौ पन्ने लिखकर भेजना."

मैंने पूछा- "चाय पियेंगे?" इसका जवाब मिला नहीं. फिर कुछ देर उसने मुझे मेरी कहानियों के बारे में बताया. लेकिन ध्यान उसका अपने उपन्यास में ही था. अचानक पूछता है- "सर मैं उपन्यास लिख लूँगा तो लोग पढेंगे?"

मैंने भी प्रश्न ही किया- "आप क्या चाहते हैं? लिखना या लोगों का पढना?"

वह मुस्काने लगा- "सर हम लिखें और लोग पढ़े भी, तभी अच्छा लगता है?"

कहानी कहना, कहानी का छपना और पाठकों का प्यार मिलना, फिर कभी-कभी जीवित रहते हुए लेखन से धन बना लेना प्रकाशन बाज़ार के काम हैं. इस संसार में गम्भीर लेखन भी हो रहा है लेकिन अधिकतर लेखक पुरानी किताबें साथ लिए बैठे रहते हैं. वे उनके हिस्से अपनी भाषा में लिखते हैं फिर अपने लिखे को उसमें समायोजित करते हैं. फिर कहानी कैसे बन रही है? ये देखते हैं. अकथा वाले तो अधिकारपूर्वक कंटेंट की सत्यता के लिए बिब्लियोग्राफी भी करते हैं. उनको ऐसा ही करना चाहिए. इस तरह कहानी रची, छपी और बिकी जा रही है तो इस पर किसी को क्यों आपत्ति होनी चाहिए. रोज़मर्रा में उपयोग आने वाली वस्तुएं बनती हैं. उनको हम खरीदते और उपयोग करते हैं, उसी तरह प्रकाशन भी है. लिखो या छापो और धन कमाओ. प्रकाशन समाजसुधार के लिए चल रहा अव्यसायिक आयोजन थोड़े ही है. किसी की आवश्यकता है तभी वह खरीद रहा है. उसे कोई धमका कर या भयादोहन करके तो किताब नहीं बेचता. इसलिए ऐसे बाज़ार पर सवाल करना ठीक नहीं है.

सवाल ये है कि लिखना क्यों चाहते हो?

बहुत से कारण विद्वानों ने सोचे हैं. जैसे सम्मान, यश, नौकरी, विचार प्रसार, धन आदि. यहाँ आपको अधिकतर लेखक ऐसे ही मिलेंगे जिनको अपने लेखक होने की पहचान अधिक प्यारी लगती है. अखिल भारतीय सेवा के एक सेवानिवृत अधिकारी को निजी काम था. जिनसे काम था उनके घर मैं साथ गया. वे अधिकारी कहीं बाहर गए हुए थे. उनकी बेटी जो कि शिक्षा विभाग की राजपत्रित अधिकारी है उन्होंने कहा- "अंदर आइये." हम बड़े हाल में सोफों पर बैठ गए. मैंने उनसे परिचय करवाया कि आप फलां सज्जन हैं. आपको ही पापा से काम है" उन्होंने पूछा- "आप क्या करते हैं?" मैं जिनके साथ गया था उन्होंने जवाब दिया- "मैं लेखक हूँ" वह पूछती है- "लेखक हो ये तो ठीक है मगर काम क्या करते हो?"

मैंने पुनः इस सत्य को पाया कि कुछ भी स्थायी नहीं है. लेखक जीते जी सम्मान नहीं पा रहा है और वह आशा करता है कि उसका यश मृत्यु के बाद भी बढ़ता जाये.

मेरे पास ऐसी प्रतिभा नहीं है कि किताबों के ढेर से कुछ पढूं और उसे अपनी कल्पनाशक्ति से नयी भाषा में लिख दूँ. लिखना अच्छा होता है लेकिन मैं लिखने को लिखता रहूँ, लोग वाह-वाह करें और अपने मन को राज़ी कर सकूं. ऐसा हो नहीं पाता.

आपका कितना सारा समय एक ढंग का वाक्य लिखने में चला जाता है, इसको सोचा है? फिर आप लिखने वालों की सोहबत और उनकी प्रशंसा में कितना समय गंवा देते हैं. फिर साहित्यिक आयोजनों में जाने की लालसा, मंच पर बैठने की हुलस, यश पाने के लिए हर साधारण-असाधारण के आगे कमर को झुकाते हुए कितना समय और जीवन नष्ट हो रहा है इस बारे में सोचते हो? मैं ये सोचता था. अब नहीं सोचता कि मुझे ये सब नहीं करना है. और इस सब काम से मुझे मोहब्बत भी न रही. जब किसी तकलीफ से बाहर आने को लिखना अच्छा लगेगा केवल तब ही लिखूंगा.

लिखते क्यों हैं ये ही नहीं सोचते तो जीवन का क्या करना है, ये कैसे कोई सोचे?

एक ख़राब कहानी और औसत गद्य से निम्न कविता कहने से अच्छा है बर्तन धोना सीखना. साग बघारना जानना. कपड़े धोना. झाड़ू लगाना. ऐसे अनेक काम हैं, वे काम करना ताकि पार्टनर को आराम आये. उसकी पीठ पर हम जो एक अदृश्य गधे की तरह सवार हैं, इससे उसे मुक्ति मिल सके. हम किसी के कष्टों के न्यूनतम कारण रह सकें. ये इस जीवन का काफी अच्छा उपयोग है. इसके साथ किसी व्यक्ति से प्रेम से मिल सको तो दुनिया के सबसे बड़े लेखक से बड़े आदमी हो. किसी को प्रेम करके उसकी प्रतीक्षा में चुप बैठ सको, तो ये सबसे गहरी उदास कविता रचना है. किसी से झूठ ही कह दो "हाँ हम मिलेंगे" ये आशा की बड़ी रचना है.

साल भर हो चुका है और वह लड़का अभी तक लौटकर आया नहीं है. उसके उपन्यास का क्या हुआ मालूम नहीं. मैंने भी पिछले तीन साल में जो लिखा वह ऐसे ही बिखरा और अधूरा पड़ा हुआ है. लेकिन मेरी इच्छाएं पूरी हो रही है. मेरे सर के बालों में अब सफेद बाल झांकने लगे हैं जल्द ही मैं साल्ट एंड पेप्पर लुक में दिखने लगूंगा. दो तीन साल पहले ऐसे बाल मेरी एक दोस्त के थे. उससे पूछा था- "मेरे बाल ऐसे कब दिखेंगे?" उसने झूठ बोलकर पीछा छुड़ा लिया था कि आपके बाल तो सबसे सुन्दर है. इस गुस्ताखी पर मैंने उसे ज्ञान दे दिया था. मोमोज खाते-खाते ही उससे कहा- "इस दुनिया के लोगों और चीज़ों के बारे में सोचना ही हमें बचाए रखता है. हम ख़ुद के बारे में सोचने लेगें कि जीवन क्या है और हम इसका क्या करें तो कब के पागल हो जाएँ"

मैंने जो पहला वाक्य लिखा उससे मेरा अभिप्राय है कि किसी के अकेलेपन में अपने लालच मत बोना. तुम्हारा लालच उसके गले का फंदा बन जायेगा. वह फिर जी न सकेगा और उसी फंदे को तुम्हारी गर्दन में डालना चाहेगा. अब दुनिया बहुत बदल गयी है. कुछ तो लोगों के पास अकेलापन है कुछ ने इसे अपनी समझ से बना लिया है. इसलिए ध्यान रखो.

तुम अकेलेपन की बारूदी सुरंगों वाले मैदान में चल रहे हो. कहीं सुरंग पर पांव पड़ गया तो समझ लो अंजाम क्या होगा. 
* * *

इस पोस्ट के लिए तस्वीर खोज रहा था कि इन्स्टा पर एक नयी फोलोवर दिखी- मनचली जोगण. उसी के इन्स्टा से ये सार्थक तस्वीर ले ली.



तस्वीर सौजन्य : instagram.com/introspectivegirl

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