चार पांच दिन बड़े बेकार गुज़रे हैं. मुंह छालों से भर गया. मैं अपने चारागर अमर लाल जी को याद करता रहा. अमर जी बाड़मेर के पहले प्रेस फ़ोटोग्राफ़र हैं. आजकल कहाँ है पता नहीं. उनको लम्बे समय से देखा नहीं. ईश्वर करे जहाँ कहीं हों आराम से देसी सूंत रहे हो.
रात के नौ बज गए थे महफ़िल जमी हुई थी. दो तीन लोग सीधे बैठे थे, इतने ही लोग कुर्सी पर लटके हुए सांप की तरह थे. उनकी मुंडी टेबल के नीचे से ऊपर की और आती और ग्लास को मुंह लगाकर वापस नीचे चली जाती. सूचना और जनसम्पर्क विभाग में सहायक निदेशक प्रदीप चौधरी कॉलेज दिनों की अनाम प्रेमिका की याद में गीत गा रहे थे. अनाम प्रेमिका इसलिए कहना पड़ता है कि हमारी भाभी न हो सकी लड़की का नाम प्रदीप जी कोई चार पांच पेग के बाद लेते थे. उस वक़्त तक हम भी रसायन के प्रभाव में सूफी हो चुके होते. इसलिए अल्लाह मिया के सिवा कुछ याद न रहता.
चाँद आहें भरेगा फूल दिल थाम लेंगे. हुस्न की बात चली तो...
इतने में अमर लाल जी आ गए. कोई फोटो देने आये थे. प्रदीप जी का गीत रुक गया. "आओ अमर जी." प्रदीप जी ने अभिवादन किया. अभिवादन के जवाब में अमर जी ने कहा- "ये लिफाफा रख रहा हूँ इसमें फोटो हैं." प्रदीप जी बोले- "ठीक है रख दो. उधर रसोई में ग्लास रखी है. ले आओ" अमर जी ने मौका मुआयना किया. अंग्रेजी की बोतलें देखकर मुंह बिचका लिया. "लो, ये आप लो. मैं लेकर आया."
आकाशवाणी जोधपुर में एक म्यूजिक कम्पोजर थे. मैं उनका नाम भूल जाता हूँ बस पंवार साब याद रहता है. उनके सुपुत्र भी बाड़मेर आये हुए थे और महफ़िल में उपस्थित थे. संगीत साधना उनके खून में थी. इसलिए वे प्रदीप जी के ठीक-ठाक सुर पर प्रसन्न थे. प्रदीप जी ने कहा कि इस गीत में एक और अंतरा है लेकिन वो ग्रामोफोन में शामिल नहीं है. मैं जब आकाशवाणी में फ़िल्म संगीत प्ले कर रहा होता हूँ तब बड़ा दुःख होता है कि गीत को काटकर एलपी में डाल दिया. लेकिन फ़िल्म के गीत में वो अंतरा आता है. इतना कहते ही छोटे पंवार साहब ने शुरू कर दिया. "चुप न होगी हवा भी, कुछ कहेगी घटा भी..." प्रदीप जी ने और गहरा सुर लगाया "और मुमकिन है तेरा ज़िक्र कर दे ख़ुदा भी...."
अमर जी ने ख़ुदा को इतना बेबस होने से बचा लिया और कहा- "तू क्यूँ गोगड़ मिन्नो होवे ज्यू बैठो है?"
दीने ने कहा- "म्हारे मूंडे में छाला होयाड़ा है"
अमर जी ने सांत्वना देते हुए कहा- "छाला मूंडे आला ही भला."
सारे गायक और श्रोता किसी खोयी हुई तासीर से बाहर आये. कोने में चुप बैठा दीना नाराज़ हो गया. "अमर लाल थारे लेवणों होवे तो ले, नई तो आगो बळ"
अमर जी ने कहा- "मजाक नी करूँ. एक बार करने देख. देसी रो एक पव्वो ला. बिना पाणी रे कुल्लो कर अर पी जा. सुबह तक छाला ठीक नी हुवे तो म्हारो नाम अमर लाल नी"
प्रदीप जी ने अपनी अंगुलियाँ टेबल पर मारी और शुरू हो गए. "होठ गंगा के साहिल. आह आह किशोर जी मैं खड़ा हुआ गा रहा और सब लड़के-लड़कियां लान में बैठे हुए. आगे वह भी बैठी. मेरी ओर देखे जाये. मैं अंतरा शुरू करूँ तो उसकी ओर अपने हाथ से हल्का इशारा करूँ और गाने लगूं. ऐसा चेहरा है तेरा जैसे रोशन सवेरा... वह मुझे देखे और दूब कुचरती जाये."
ये स्क्रीन प्ले और गीत इसी तरह से लगभग हर पार्टी में चलता था. इस बीच दूसरा जो गीत गाया जाता था उसका नम्बर तीन पेग के ठीक बाद आता था. गीत था- कसमें वादे प्यार वफ़ा सब बातें हैं बातों का क्या. इस गीत में विशेष ज़ोर या खरज का सुर तब लगाया जाता था जब आता कि तेरा अपना खून ही आखिर तुझको आग लगाएगा. मैं बेसुरा चुप सुनता रहता था. हमारी महफ़िल नियम से एक बजे समाप्त कर दी जाती. इसकी उद्घोषणा भी प्रदीप जी स्वयं करते. "भाइयों अब बस करते हैं. हम समझदार, परिवार वाले, इज्ज़तदार लोग हैं. इतनी रात को कलक्टर या एसपी साहब रास्ते में मिल गए तो अच्छा नहीं लगेगा कि हम दारू पीकर घूम रहे. आओ चलते हैं"
इस उद्घोषणा में आया इज्ज़तदार शब्द सबको अटेंशन में ले आता था. लेकिन हम सब बोतलों की ओर देखते. जाँच परख होती कि कुछ बच तो नहीं गया? कल सुबह कोई देखेगा तो क्या कहेगा. सात आठ लोग मिलकर तीन बोतल दारु न पी सके. हमको ऐसे देखते हुए प्रदीप जी कहते- "देखो बोतलें खाली होने के साथ गिलासें भी ठिकाने पर जमा कर रखनी हैं. धोना भले ही मत. कल धो लेंगे"
मुझे तीन दिन से अमर जी की बड़ी याद आई. अब तो सरकार ने आकाशवाणी बाड़मेर के मुख्य द्वार के ठीक सामने देसी का ठेका लगवा दिया है. माने आप ज्यों ही थके-हारे, शोषित, उपेक्षित, फ़िल्म संगीत प्ले करने के दौरान बीती हुई ज़िन्दगी को याद करके घबराए हुए स्टूडियो से बाहर आयें तो आपकी ताज़गी के लिए ठेका स्वागत में खड़ा मिले. मैं अमर जी को ही याद करता रहा. देसी का पव्वा न खरीद सका. गेट से बाहर निकलते ही गाड़ी की स्पीड धीमे की लेकिन कांच नीचे न किया और उदास आगे निकल गया. ठेका पीछे छूट गया.
तिलक बस स्टेंड पर एक खोखा है. यहाँ नए धुँआ प्रेमी आते हैं. वे खोखे में छिपकर सिगरेट फूंकते हैं. कुछ सीनियर लोग बाहर ही बैठते हैं. उनसे भी सीनियर लोग रेलवे वालों की बनाई बाउंड्री पर ग्लास साथ लेकर बैठते हैं. रेगिस्तान के जीवट वाले लोग हैं, बड़ी मेहनत करके कड़ी दोपहरें बुझा देते हैं.
मैं खोखे के आगे खड़ा होकर सिगरेट सुलगा रहा था कि एक परिचित ने पूछा- "क्या हाल भाई साब?"
मैंने कहा- "मुंह में छाले हो गए."
"भाई साहब एक दवा आती है. जल्दी ठीक हो जाते हैं."
मैंने कहा- "मुझे दवाओं पर यकीन नहीं है. एक अल्कोहल है जिससे केंसर नहीं होता है. उसी से इलाज करेंगे."
"वो आप कुल्ला करने की तो नहीं सोच रहे?"
"मैंने कहा- "और कोई रास्ता नहीं है. वैसे भी पानी मिलाकर पीते-पीते बोर हो जाते हैं. वही ग्लास भरो खाली करो. होता कुछ है नहीं."
दोस्त ने कहा- "भाई साहब मुंह छिल जायेगा. जलन होगी और पक्का छाले ठीक न होंगे."
मैंने कहा- "ठीक है गोली मारो. अमर जी का कहना है मुंह के छाले ही अच्छे होते हैं. इसलिए पड़े मरने देते हैं"
कल शाम कुछ काम था नहीं. दारु का प्याला भरो, प्याला खाली करो. जंगली आदमी की तरह सेब चबाओ. इस बीच सोचा कि फेसबुक पर आई फ्रेंड रिक्वेस्ट एक्सेप्ट कर लूँ. फेसबुक ने फ्रेंड रिक्वेस्ट में अब सीनियरिटी हटा दी है. एक बार रिक्वेस्ट आई और आप देखकर किसी दूजे काम में लग गये तो रिक्वेस्ट पुरानी रिक्वेस्ट के ढेर में कहीं खो जाएगी. आपको पता न चलेगा कि नयी रिक्वेस्ट कौनसी है. प्याले भरने की लम्बी फुर्सत में कल रात चार सौ से अधिक रिक्वेस्ट एक्सेप्ट कर ली. आठ सौ और कुछ रिक्वेस्ट थी. अब चार सौ इकहत्तर पेंडिंग रही है.
कुछ प्रोफाइल के दो एक फोटो देखे. कुछ का कुछ न देखा. प्रोफाइल पिक्चर और बायो बड़े महत्वपूर्ण होते हैं. अधिकतर रिक्वेस्ट का अंजाम उसी से तय होता है. कल बिना सोचे समझे ऐसी रिक्वेस्ट एक्सेप्ट करी जिनमें नदी और तालाब किनारे गर्मी के दिनों से एक अधोवस्त्र में बैठे नौजवान थे, जिनमें किसी माल में रेलिंग पकड़े खड़ी नवयुवतियां थी. कुछ एक जिन्होंने कवि पाश और कामरेड चे के फ़ोटो लगा रखे थे. मुझे कल मालूम हुआ कि अटल बिहारी वाजपेयी जी ने दस बारह अलग-अलग अकाउंट बनाकर रिक्वेस्ट भेज रखी है. पता नहीं वे क्यों किसी भी तरह से मेरी प्रोफाइल में घुसना चाहते हैं. इस मृत्यु लोक को त्याग देने के बाद भी उनको चैन नहीं है. हार नहीं मानूंगा... मैंने भी सोच लिया. भेजते रहो अटल जी मैं भी अटल हूँ.
अचानक प्रदीप जी की आवाज़ आई. "हम इज्ज़तदार लोग हैं. कायदे से चलना रहना चाहिए." मैंने घड़ी देखी तो बारह बज चुके थे. सोचा कि अमरीका में अब क्या समय हुआ होगा? क्या प्रदीप जी ने बीयर खोल ली होगी. क्या वे गुनगुनाना शुरू कर चुके हैं. चाँद आहें भरेगा... मैं याद भरे क़दमों से चारपाई से उठा. आधे चाँद को निहारा. मैंने परम्परा अनुसार ग्लास को बिना धोये सही जगह पर रखा और सो गया.
छाले वैसे ही हैं पर काम चल रहा है. ये तस्वीर ठीक उन्हीं दिनों की है. तब ज़िन्दा होने की थोड़ी अकड़ बाक़ी थी. एक गीत और गाया जाता था. हम छोड़ चले हैं महफ़िल को, याद आये कभी तो मत रोना...