वो जो अनजाने दफअतन हमारे जीवन में घट जाता है. वह जिसके पहले कुछ सोचा न था. वह जिसके बाद का सोचना अभी बाकी हो. उसका मन गुंजलक था. वह दरवाज़ा खोलकर सीढियाँ नहीं उतरी. उसे इस बात का सब्र नहीं था कि मुख्य दरवाज़े के सामने बनी दुछ्ती से बाएं मुड़े और फिर रेलिया कि हेजिंग के पास से होती हुई चले. वह सदाबहार के फूलों के बराबर बने कच्चे रास्ते से जाये. उसे याद था कि रास्ता गीला है. पिछवाड़े में बने छोटे से कृत्रिम तालाब से बहकर पानी, काली मिट्टी के छोटे ढेर तक जा रहा था. वहीँ खरपतवार के बीच कुछ बैंगनी रंग के जंगली फूल उगे हुए थे. वह खिड़की से कूद गयी. चार हाथ ऊँची खिड़की में ग्रिल नहीं थी. बस दो पल्ले भर थे. पिछले कुछ दिनों से वह इस खिड़की में घंटो पालथी मार कर बैठी रहा करती थी. वह वहीँ से कूदी. बे आवाज़ चलते हुए छोटे तालाब तक आई और गीली मिट्टी से सने पैरों को पानी में डालकर बैठ गयी. मुड़कर देखे बिना आहटों की टोह लेती रही. क्या कोई इस तरफ आ रहा है. क्या आस-पास कोई आवाज़ है. क्या किसी ने देखा है? उसने धप से अपनी दोनों आँखें ढक लीं. एक लम्हा सामने खड़ा हुआ था. जैसे कोई मुकदमे का पहला...
[रेगिस्तान के एक आम आदमी की डायरी]