क्यों किया था ऐसा?
तुमने कहाँ गलती की थी केसी. तुम किस तरह नाकाफी हो गए. अपना सबकुछ सौंप देने के बाद भी लगातार महीने दर महीने तुम्हारी झोली में क्या गिरता रहा. तुम एक ज़हीन आदमी न सही मगर इतना तो समझते ही थे कि अब तक जो भोगा है, उसकी पुनरावृति कैसे रुक सकती है. यही फिर से लौट-लौट कर न आना होता तो पहली बार ही ऐसा न होता. तुम जिस यकीन को मोहोब्बत की बिना पर लिए बैठे रहे उसी पर लगातार चोट होती रही. अपनेपन में आने वाली उदासियों की ठोकरों पर, तुमने झांक-झांक कर देखा, तुमने बार-बार पाया कि यही सब हो रहा है. तुमने खुद को किसी और के लिए धोखे दिए. तुम उसके आहत न होने की कामना में खुद को सताते रहे. तुम क्या चीज़ हो केसी. तुम्हें खुद से नफरत नहीं होती क्या?
एक एक सांस रुक रुक कर आती है. दफ्तर के सूनेपन में एक जाने पहचाने दुःख पर आंसू बहाने में असमर्थ, सीने में दर्द की तीखी चुभन लिए हुए. रो सकने से लाचार. ऐसे क्यों बैठे हुए हो. तुम जानते तो हो ही. तुम्हें मालूम तो सब है है. फिर भी.
आओ आंसुओं
घने पतझड़ की झर की तरह
लू के बोसों की तपिश की तरह.
रुखसारों पर
बढई के रणदे की तरह.
वसंत के पीले चोगे
गरम रुत के चौंधियाते उजास
सावन के लम्बे इंतजार
सर्द दिनों की कठोर छुअन
की स्मृतियों से बाहर.
देखो, छल और कपट के तेज़ धार वाले अस्त्र
समझो, मन की गिरहों से झांकती आँखों को.
और ख़त्म कर दो
आखिरी उम्मीद.
एक शातिर, धूर्त और नक्काल
अपनी रोनी सूरत से
अपने रंगे हुए दिल से
अपनी बेबसी के ढोंग से
उसके जरिये तुमको काट रहा है छोटे-छोटे टुकड़ों में.
अविराम
अनंत
निरंतर
हत्या, हत्या, हत्या,
तुम खून से भीगे हुए अपनी ही लाश उठाये हो.
मगर चल रहे हो.
[Painting : Tilen Ti]