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मौसमों के बीच फासले थे - अंतिम

“घर चाहे जितना छोटा हो असल में बहुत बड़ा होता है. घर के किसी कोने, दरवाज़े के सामने, खिड़की के पास, छत पर कभी ठीक बीच में, कभी मुंडेरों के आस पास. मन कोई जगह चुन लेता है. हम उसी जगह पर जाकर बैठना, खड़े होना पसंद करते हैं. फिर कभी वह जगह छूट जाती है. एक रोज़ जब फिर से उसी जगह पर जाते हैं तो पाते हैं कि समय वहीँ ठहरा हुआ है. हम उस जगह को इस तरह देखते हैं जैसे अपनी अनुपस्थिति के ब्योरे दे रहे हों.” आदमी की आँखों में झांकते हुए औरत कह रही थी.
“असल में हमारे जीवन के उतने हिस्से हैं, जितनी हमारी पसंद की जगहें हैं. तुम याद करना उस जगह को और फिर वहीँ बैठकर देखना. ऐसा लगेगा कि हम जो कुछ यहाँ छोड़ गए थे, वह फिर से शुरू हो रहा है.”
आदमी ने कहा- “शायद ऐसा होता होगा”
“तम्हें कोई जगह याद है?” 
“हाँ”

हामी भरने के बाद आदमी ने सोचा कि वह कितना बताये. कहाँ से शुरू करे? आदमी ने औरत की ओर देखा. उसके कंधे पर धूप की एक फांक पड़ी थी. ये फांक शायद कंधे से होती हुई कमर के नीचे तक जा रही होगी. वह उठकर देख लेना चाहता था.
वह उठा नहीं. उसने एक बार अपने सर को दायें घुमाया. जितनी दूर देख सकता था, उतनी दूर तक देखा. फिर उसी तरफ देखते हुए ही बोलने लगा. “हम जब मिले थे न, तब हम एक दूजे के लिए इस तरह बेसब्र थे कि एक एक पल किसी एक के बिना काटना मुमकिन न था. फिर जब हम साथ हुए न, हमने खूब प्यार किया. ये आत्मा और शरीर दोनों माध्यमों से था. हम रसोई में चिपके खड़े रहते थे. हम दोपहरों में घंटों नीम अँधेरा किये पड़े रहते थे. इसके बाद हम कभी-कभी साथ हुआ करते थे. फिर हम बातें करते थे मगर किसी और से. हम एक दूजे को कुछ नहीं बोलते थे. मैं उसका पति हूँ, वह मेरी पत्नी है.”
आदमी ने औरत की तरफ मुंह फेरते हुए कहा- “अब बस यही है कि हम एक छत के नीचे रहते हैं”
“तो ऐसा क्यों हुआ? क्या खो गया?”
आदमी ने कहा- “शायद हमें कुछ ऐसा चाहिए होता है जिसकी नवीनता कभी खत्म न हो”
औरत के चहरे पर इस जवाब से संतोष नहीं उपजा- “नवीनता ही चाहना होती तो हम अपने अतीत के कुछ रिश्तों में कभी न अटके रहते.”
“मेरा अतीत कुछ नहीं है. वह रेगिस्तान से गुज़रे मुसाफिरों के सफ़र जैसा है जिनके पांवों के निशाँ आंधियां लाख बार बुहार चुकी हैं. अब वहां एक स्मृति है जो निरंतर क्षीण होती जा रही है” आदमी की आवाज़ ठहरी हुई थी.
आदमी ने अचानक एक सवाल पूछा- “अपनी प्रिय जगहों पर लौटना, उन रिश्तों तक लौटना नहीं है जिनको आप किन्ही कारणों से छोड़ चुके होते हैं?
औरत ने कहा- “मैं वास्तव में किसी भी रिश्ते को छोड़ नहीं पाती हूँ. सब मेरे साथ चलते हैं. मैं जब कभी फिर से किसी पुरानी जगह पर होती हूँ तो उससे जुड़ जाती हूँ. ठीक वहीँ से जहाँ वह छूट गया था”
औरत ने कहा- “मैं पानी लेकर आती हूँ.” वह चाय के मग उठाकर सीढियाँ उतर गयी.
आदमी झूले पर बैठा हुआ सोचने लगा कि जब मैंने इसे बताया कि मैं अपनी पत्नी को घर से जाते हुए देखता हूँ. वह हर समय कहीं किसी से बात कर रही होती है. मेरी ये बात सुनकर इसने नज़रें नीचे कर ली थी. क्या वह मेरी इस बात से सहमति रखती है कि रिलेशन में धोखा सिर्फ ये नहीं होता कि आप क्या करते, चुनते हैं. ये भी धोखा होता है कि आप अपने मन को कई आवरणों से ढक देते हैं.
आदमी की सोच के प्रवाह में औरत की आवाज़ ने दखल दिया. “इधर आओ” 
औरत पानी की बोलत लिए छत पर लौट आई थी. वह सीढियों के पास मुंडेर पर कोहनियाँ रखकर खड़ी हुई थी. नीम के पेड की एक उंची शाख मुंडेर के इस हिस्से पर छाया उकेर रही थी. यहाँ खड़े होने से दूर तक गली दिखती थी. बंद पड़े मकानों के दरवाज़े और छोटी दीवारें एक तस्वीर थे.

आदमी झूले से उठकर औरत के पास आ गया. औरत ने उसे और नजदीक आने को कहा. “यहाँ आओ, इस जगह खड़े होकर गली को देखो” आदमी पास आया. गली जितनी लम्बी और सूनी थी, आदमी और औरत के बीच उसके उल्ट नजदीकी थी. उनके बदन कहीं कहीं से छू रहे थे.
औरत ने कहा- “तुम यहाँ खड़े होकर कितनी देर तक इस गली को देख सकते हो?”
आदमी ने एक बार गली को देखा फिर औरत को देखा फिर गली को देखते हुए बोला- “अगर वह मेरे पास यहाँ खड़ी होती तो मैं इस गली को तब तक देख सकता जब तक वह यहाँ रहती.”
“तुम्हें मालूम है मैं इस गली को यहाँ अकेले खड़े होकर देखती हूँ”
लड़की ने कुरते की बांह को फोल्ड करके एक बटन में टांक रखा था. उसकी कलाई से लेकर जहाँ तक बांह दिखाई पड़ रही थी. एक सफ़ेद गुलाबी आभा थी. उसकी मुट्ठी बंद थी मगर तर्जनी में पहनी अंगूठी का पीला पत्थर चमक रहा था. आदमी ने उसकी बांह पर अपनी तर्जनी से छुआ. जैसे वह एक लम्बी लकीर खींच रहा हो. वह अपनी अंगुली को उसकी अंगूठी तक ले गया.
“सुनो” औरत में कहा. “यही वो जगह है जहाँ खड़ी होकर मैं सच बोलती हूँ.”
आदमी ने सुनो कहते समय ही झटके से अपनी अंगुली को उसकी बांह से हटा लिया था. वह औरत की तरफ देखने लगा. औरत का चेहरा लाली से भरा हुआ था. उसके होठ कांप रहे थे. उसकी नज़रें गिर रही थी और वह उनको जबरन उठाये हुए थी.
आदमी ने कहा- “मैं तुम्हें इसी वक़्त बांहों में भरकर चूम लेना चाहता हूँ.”
औरत ने कुछ न कहा.
आदमी ने आगे कहा- “मैं उसे घर से जाते हुए और लोगों से बोलते हुए देखता हूँ तो मेरी नफरत, मेरा तिरस्कार जगा रहता है. मैं उसका इंतजार करता हूँ कि वो लौट आएगी. अगर मैं तुमको चूम लूँ तो उसके प्रति मेरी नफरत और तिरस्कार खत्म हो जायेगा. उसमें और मुझमे कोई फर्क न बचेगा. ऐसा होते ही मैं उससे कहूँगा कि अब हम अलग हो जाते हैं.”
“और मैं उसे खोना नहीं चाहता हूँ” ये कहकर आदमी चुप हो गया.
औरत ने उसकी हथेली को अपनी हथेली पर रखा. उस पर अपनी दूसरी हथेली रखी. “मुझे ख़ुशी है कि इस जगह खड़े होने वाला हर कोई सच ही बोलता है.”
“मैं भी...” इतना सा और कहकर औरत चुप हो गयी.
आदमी ने पूछा- “क्या मैं भी?”
“तुम अपने आपको धोखा दे रहे हो. और मैं भी यही कर रही हूँ.”
“मैंने सोचा तुम कह रही हो कि तुम भी मुझे बांहों में भर लेना चाहती हो”
औरत मुस्कुराई. “हाँ..."
आदमी पानी पर गिरा हुआ पत्ता था. एक तरफ से भीगा और एक तरफ से सूखा. औरत अनंत प्रतीक्षा के आवेग से भरी उफनती, गरजती नदी थी किन्तु किसी पहाड़ पर खड़े भव्य किले सी चुप खड़ी थी.
[ज़रूरी नहीं है कि हर बार ज़िन्दगी तुम्हारी अंगुली पकड़ कर चले, कभी-कभी तुम्हें भी आगे बढ़कर उसकी अंगुली थामनी चाहिए. ]


Painting courtesy : pinterest

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