उस खाली-खाली से पड़े रेस्तरां में क्रिकेट मैच देख रहे लड़के की अलग दुनिया थी. वहीँ पास ही बैठे हुए जतिन और सुरिन की दुनिया अलग थी. लड़का किसी एकांत से उपजे खालीपन में खेल भर रहा था. सुरिन इतनी ज्यादा भरी हुई थी कि कुछ खालीपन जुटाना चाहती थी. जतिन ने खालीपन और भरे होने के भावों को स्थगित कर रखा था. उसके ठीक सामने तीन साल बाद सुरिन थी और वह इन लम्हों को सलीके जीना और स्मृति में बचा लेना चाहता था. जब सुरिन उसके जीवन वृत्त से बाहर कदम रख चुकी थी तब जतिन ये याद करने की कोशिश करता था कि सुरिन के इस वृत्त में होने से क्या था और न होने से क्या नहीं है?
“तुम” सुरिन ने कहा.
“मैं क्या?” जतिन ने पूछा.
“क्या सोच रहे हो?”
“मैं सोच रहा हूँ कि हम जो कुछ करते हैं उसकी कोई पक्की वजह होती है.”
“जैसे?”
“जैसे हम मिलते थे. फिर हम सालों नहीं मिले. जैसे अभी एक दूजे के सामने बैठे हैं और शायद..."
जतिन ने कांच के पार देखा. वो जो बादल चला गया था, उसकी स्मृति भर बची थी. सड़क धूप से भरी थी. दोपहर का रंग वैसा ही था. जैसा बादल के आने से पहले था.
जतिन को इस तरह बाहर देखते हुए देखकर सुरिन ने कहा- “ये पीले पत्थरों से बनी सड़कें कितनी अच्छी लगती है न”
“हाँ बहुत अच्छी”
“क्यों ?”
“पीले पत्थरों से बनी सड़कें इसलिए अच्छी लगती है कि हमने सडकों के बारे में जो सोच रखा है उससे अलग हैं.”
“अगर हमने ये पहले से न सोच रखा होता कि सड़क कोलतार से बनी होती है. वह दूर तक अनगिनत मोड़ों और हादसों से भरी होती हैं. तो क्या ये पीले पत्थर वाली सड़क अच्छी न लगती?”
“हाँ”
“तो अगर हमने जीवन के बारे में पहले से कुछ न सोच रखा होता तो वह भी हमें अच्छा लगता?”
प्रश्न सिर्फ शब्दों में नहीं था. प्रश्न स्वर में था. प्रश्न सुरिन की आँखों में भी था. हर प्रश्न का उत्तर नहीं होता है. कुछ प्रश्नों के उत्तर केवल प्रश्न ही हो सकते हैं. इसलिए जतिन ने प्रतिप्रश्न किया- “तुमने जीवन के बारे में क्या सोच रखा था?”
“मैं उस घर में गयी, जहाँ मुझे उम्र भर होना था. वहां बुजुर्ग नहीं थे. वे आशीर्वाद देने आये थे और देकर लौट गए. उनका तय था कि वे उसी क़स्बे में रहेंगे जहाँ पुश्तैनी घर है. एक बड़े भैया और उनका परिवार था. वह बराबर के मकान में रहता था. उनके वहां आना-जाना और बोलना न बोलना कुछ भी नियमों में नहीं बांधा हुआ था. मन हो तो आओ, न हो न आओ. अकेले नहीं रहना तो जब तक चाहो दोनों उसी घर में रह लो. क्या पहनना-ओढना है सब अपने मन का चुनो. कब सोना-जागना है, तुम स्वयं समझदार हो.”
“ये कितना आदर्श भरा घर है न?”
“हाँ.”
“फिर...”
“क्या तुमने कभी फूल को डाली से टूटकर गिरते देखा है?”
“हाँ”
“क्या कभी पत्ते झड़ते हुए देखे हैं?”
“हाँ”
“बस ऐसा ही है.”
“माने?”
“जहाँ प्रसन्नता पर प्रसन्नता न हो और दुःख पर दुःख... ऐसा साधा हुआ जीवन.”
“लोग यही चाहते हैं”
“बुद्धिहीन हैं लोग.” एक चटकता हुआ रूखापन जाने कहाँ से सुरिन के स्वर में घुलकर गिरा. “वे ऐसा चाहते हैं तो मगर ऐसा बरतने का धैर्य, साहस और श्रम कब सीखे हैं?”
सुरिन ने जतिन को छुआ. जैसे बरसात की पहली बूँद अचानक ललाट पर गिरती हो. जैसे नंगी पीठ पर पंख फिसलता हो. जैसे पानी में रखे पैर के तलवे को कोई गुदगुदा दे. जतिन की अंगुलियाँ सुरिन की अँगुलियों से बाहर आ रही थी. जतिन की हथेलियाँ भीग चुकी थीं. वह जिस अनुभूति से भर गया था, उसका कोई उपचार नहीं था.
उसने कांपते स्वर में अधूरा प्रश्न किया- “क्या तुम...?”
सुरिन ने अधूरे प्रश्न को बिना समझे कहा- “नहीं”
[हर टूटती पत्ती के पीछे एक कोंपल खिल रही होती है, एक दुःख के पीछे...]
Picture courtesy : Jyoti Singh