तुम कब से बैठी हो?
चालीस मिनट से.
सब मेज खाली पड़ी हुई थी. बिना खिड़की वाली इकलौती साबुत दीवार के बीच टंगे टीवी पर क्रिकेट मैच का प्रसारण था. उसे देखने वाला कोई नहीं था. दुनिया के किसी कोने में खिलाड़ी अपने खेल में मग्न थे. एक उड़ती निग़ाह उस तरफ डाल लेने के बाद जतिन ने सामने की कुर्सी को थोड़ा पीछे खींचा. मेज पर कोहनियाँ टिका कर बैठ गया.
चालीस मिनट?
"हाँ" कहते हुए सुरिन ने जतिन की आँखों में देखा. आँखों में झाँक से नीचे उतरते हुए सुरिन ने देखा कि जतिन की आँखों के नीचे हलकी स्याही थी. स्याही के नीचे गालों पर कुछ बेहद छोटी लाल फुंसियाँ निकली हुई थी. बाल लम्बे थे और कलमें बेतरतीब थी.
वह उसे देख रही थी तभी उसका ध्यान टूटा. जतिन कह रहा था- तुम्हारे ब्रेसलेट के सुरमई पत्थर अच्छे हैं. तुम्हें सलेटी रंग पसंद है न ? हाँ मगर हल्का.
काउंटर पर एक लड़का बैठा हुआ था. बाकी कोई दिख नहीं रहा था. प्रीपेड था सबकुछ. वे वहां आराम से बैठ सकते थे. जब तक कि बहुत से लोग न आ जाएँ और मेजें खाली न बचें. काउंटर वाला लड़का क्रिकेट मैच से अनजान ऊँचे स्टूल पर दीवार का सहारा लिए बैठा था. जतिन और सुरिन ने एक आध बार उसकी तरफ निग़ाह डाली और फिर वे लम्बे शीशे के बाहर पसरी हुई दुपहरी को देखने लगे.
"ये चुभता है"
सुरिन ने कहा. क्या?
समय.
जतिन का मन अचानक किसी छोटे बच्चे की तरह एक सीढ़ी से गिर पड़ा.- "क्या हुआ है?"
"कुछ नहीं.."
"क्या कुछ नहीं?"
उस शहर में बेहिसाब कबूतर थे मगर सब रोशनदानों और छज्जों पर चुप बैठे थे.
जतिन ने फिर से कहा- "बताओ !!"
सुरिन ने जाने किस से मुंह फेर रखा था जतिन से या अपने आप से मगर उसके मुंह से एक शब्द निकला- "ज़िन्दगी."
बाहर सड़क पर पड़े कागज़ के खाली कप को हवा उड़ाकर अपने साथ ले गयी.
[हवा के झोंके से उड़ा पत्ता जाने कहाँ गिरे, तुम हैरत करना दुःख न करना ]