मैं जाने क्या खोज रही थी. मुझे याद नहीं था लेकिन मेरी अंगुलियाँ अतीत की राख से भरी थीं.
खिड़की के परदे खुले हुए थे. हवा खिड़की के रास्ते आती और दरवाज़े से होती हुई बरामदे की ओर गुम हो रही थी. खिड़की के पास दीवार में बनी छोटी अलमारी के दोनों पल्ले उढ़के हुए थे. एक कोने के नीचे की तरफ नीली स्याही का धब्बा बना हुआ था.
उस दिन की याद आई जब दवात से स्याही भरते समय अंगुलियाँ सन गयीं थीं. पेन में स्याही इसलिए भरी थी कि लग रहा था, आज बहुत कुछ है लिखने के लिए. लिखने से ही अच्छा लगेगा. हाँ, तो वो एक जगह लिखकर रखा था न. कहाँ, जाने कहाँ रखा उसे. मुझे अच्छा नहीं लगता जब कुछ इस तरह भूल जाती हूँ. मैंने अगर लिखा था तो उसे इस तरह रखने की क्या ज़रूरत थी. कौन मुझसे कहता कि तुमने ऐसा क्यों लिखा है. अगर कोई कह भी देता तो क्या फर्क पड़ता. प्यार और सम्बन्ध जैसी चीज़ें वास्तव में है थोड़े ही. ये सिर्फ गिनाने भर को बचा है. हम ये हैं. हम तुम्हारे वो हैं. अगर ऐसे तुम इतने कुछ मेरे हो तो पढोगे वो पन्ना, जो मैंने एक अजाने को याद करते हुए लिखा. फिर शांत होकर किसी उत्साह में पूछोगे कि और बताओ उसके बारे में.
मैं उठकर अलमारी के पल्ले पर लगी हत्थी पर अगुलियां आहिस्ता से रखती हूँ. ये हत्थियाँ मैंने बहुत बार छूई हैं. इस अलमारी में मैं रहती थी. यानी मेरी किताबें. मेरा थैला. मेरी पसंद की सब चीज़ें. मैं उनको अक्सर सलीके से जमाया करती थी. इस अलमारी में चीज़ों की जगहें तय थी. मैं कई बार इस अलमारी को खोले हुए इसके सामने घंटों बैठी रह जाती थी. फिर किसी की आवाज़ आती. कोई मुझे पुकार रहा होता तब इस अलमारी को आहिस्ता से बंद करती जैसे अपनी किसी सखी को कह रही हूँ कि अब मैं जाती हूँ. फिर आउंगी.
जिस तरह दुखी मन गहरे एकांत से भरा होता है. तनहा होने की तड़प खिली रहती है. उससे लगता है कि मेरी डायरी में भी यही सब दर्ज़ होगा. अब मुझे ज्यादा फर्क नहीं पड़ता. मैंने तकलीफों को अपना लिया है. उन सालों जब मैं बेहिसाब रोई थी, तब मैंने पाया था कि ये सिर्फ अपने आपको खाली करना है. अगर मैं दुःख को नोच कर फेंक देती तो ये किसी अपने ही हिस्से को बेदर्दी से काटना होता. मुझे ऐसा करना अच्छा नहीं लगा इसलिए मैंने आंसुओं से दुखों को धोकर मिटाया.
मुझे बहुतों ने कहा था अब तुम बड़ी हो गयी हो.
बड़ी होना क्या होता है. मेरा शरीर बदल गया था मगर मुझे बेहद पसंद था. मैं जैसी खुद को देखना चाहती थी, वैसी ही थी.
हाँ बड़ा होना ये हो सकता था कि उन दिनों मैं बेतरतीब चीज़ों के बीच अपने लिए ठीक रास्ता सोचती थी. मगर रातों की तन्हाई में अपनी कमसिन बाँहों के बीच पसरे कुछ न करने के मौसम को चुपचाप जीती रही. शेक्सपीयर, कीट्स, शैली और इलियट को पढ़ती थी. भद्दे, बदतमीज लोगों की गालियों के बीच गुज़रे दिन को याद करती थी. एक सखी से उसकी रिलेशनशिप के किस्से सुनती थी. मुझे उसकी बातें सुनते हुए कुछ अच्छा बुरा नहीं लगता था. बस मैं सुनती थी. उस रिश्ते का हासिल सिफ़र था. वह कहती- "हम दोनों एक दूजे की बाहों में पड़े रहते हैं. हम और कुछ नहीं करते." मैं इस बात को भी चुपचाप सुनती. उसे भी शायद कोई जवाब नहीं चाहिए होता था.
एक रात वह मेरे पास ही रुक गयी थी. आधी रात को हलके सफ़ेद चादर के नीचे से उसकी फुसफुसाहट थी. “तुम मुझे अपनी बाहों ले लो. आओ इस रात कैसे भी आओ” मैं उसको इससे आगे नहीं सुन पाई. मैं कहीं खो गयी थी. कोई भी व्यक्ति क्या दे सकता है. उसे क्या मिलेगा उन बाँहों में? क्या वहां कोई सुख है. क्या वहां इतनी मादकता है कि जब वे एक दूजे के सामने बैठे हों तब भी उनके मन में एक दूजे को बाहों में जकड़े रहें. उस रात वह कब सोई मुझे नहीं पता. सुबह वह दस बजे के बाद उठी. मैं जब वापस कमरे में आई वह शोर्ट और एक बेहद ढीला टी पहने हुए बिस्तर से नीचे पाँव लटकाए हुए बैठी थी. उसने मुझे देखा और भोहें ऊपर की और गाने लगी.
व्हेन आई डू काउंट द क्लॉक देट टेल्स द टाइम
एंड सी द ब्रेव डे संक इन हिडीएस नाइट
वेन आई बीहोल्ड द...
नथिंग.. फकसम... ही ही ही . एक अल्हड ताज़ा हंसी से कमरा भर गया.
कुछ चीज़ें ज़िन्दगी से चली जाती हैं. जैसे वे सब रातें ऐसे आती थी जैसे कोई भूली हुई याद. किसी डर के अहसास के बाद का सिहरन भरा खालीपन. किसी ख़्वाब के बिखरे हुए टुकड़े. उन रातों से एक सुकून भी आता था. वे रातें आती नहीं भी उनको लाना होता था दिन और शाम को काट कर.
अपनी राख की तलाशी में मुझे वह कहीं हाथ न लगी.
वह मेरी ज़िन्दगी, जो आस-पास किसी साजिश की तरह टूट कर गिरी. जो किसी दोस्त की तरह आई थी. और जाने क्यों चली गयी जबकि मैं कभी किसी को छोड़कर न गयी. इस दुनिया के कुछ भय हैं, जो हमेशा मुझे उदासीन कर देते हैं. मैं रुख फेर कर बैठ जाती हूँ. मैंने ऐसा ही किया.
मेरी डायरी के हर पन्ने में कुछ न कुछ दर्ज़ था. कहीं-कहीं वह लड़की भी जो मेट्रो के लिए नीचे उतरती सीढियों की ओर मुंह करके खड़ी होती. हाथ में पकडे हुए अदृश्य माइक्रोफोन से, एक अदृश्य बेहिसाब भीड़ को संबोधित करती थी- "दोस्तों जिंदगी सिर्फ वो है. वो माने वो. एक झंडू चीज़, जिसे हम विलक्षण बनाना चाहते हैं. आज आपसे बात करते हुए मुझे कन्फ्यूशियस कही ये बात याद आ रही है. लाइफ इज रिअली सिम्पल, बट वी इंसिस्ट ऑन मेकिंग इट कोम्पलीकेटेड" मेट्रो गाड़ी, स्टेशन पर आती दिखती और वह जल्दी से अदृश्य माइक को फेंक कर बोलती- "चल भाग, अम्मा आ गयी है." हम दोनों दौड़ते हुए सीढियाँ उतर जाते.
मेरी डायरी में गहरी याद और उदासी के पन्ने हैं. किसी पन्ने पर ये भी लिखा है कि मैं तुमसे रुख फेरे दीवार से सहारा लिए बैठी थी. इसलिए कि मुझे तुम्हारा सहारा नहीं मिल सकता था.
[किसी दरख्त से बीज लेकर एक फाहा हवा में उड़ रहा था]