या तो रख लो या ठोकर मार दो। दो साल बाद अब मुझे इस बात के लिए आग्रह नहीं रहा। अब लगता है कि जैसे जो बीत रहा है, उसमें अधिक हस्तक्षेप न करो। किसी की भी प्रकृति और बन्धनों को जाना नहीं जा सकता। इसलिए उसे जगह और समय दो ताकि वह सांस ले सके। हो सकता है तुम्हारी ही तरह वह भी किन्हीं दूजी बातों की परेशानी में घिरा है। इतना उकताया हुआ है कि कुछ करना उसके बस की बात न रहा। हताशा ऐसी ही कि खुलकर रो भी नहीं पा रहा। सबके मन अंधेरे से भरी भखारी है, उसमें जाने कैसे कैसे डर बैठे हैं।
[रेगिस्तान के एक आम आदमी की डायरी]