रंगीन पेंसिल की लकीर थी। आगे न बढ़ी तो रुक गयी। आहिस्ता आहिस्ता हल्की हो गयी। अब गौर से देखना पड़ता। किसका रंग था ये? बहुत अधिक बरस नहीं, बस कुछ एक बरस पीछे झाँकने पर याद आता। उसका चेहरा थोड़ा सा बनता। खाली छूटे हुए चेहरे के पार कोरा आकाश झाँकता।
प्यार करते थे। जैसे नदी के किनारे की रेत और पानी। नदी कम पड़ती तो रेत आगे बढ़कर उस तक पहुँच जाती। रेत दूर सरकती तो पानी आगे बढ़कर उसे छू लेता। इस तरह एक साथ ही दिखे। पानी और रेत की तरह। मगर जिस तरह रंगीन पेंसिल की लकीर खो गयी थी, उसी तरह पानी दूजी तरफ बहा, रेत दूजी ओर उड़ी। एक पानी की लकीर शेष रह गयी।
कैसे होता है ऐसा ?
उन दिनों वही सब कुछ लगता। इन दिनों उस होने के बारे में सोचकर ठहर जाते हैं। समझ नहीं आता कि वो जो हुआ, वह अच्छा था या उसका होना न होता तो अच्छा होता। झड़े हुये फूलों के रंग उड़े हुये हों ज़रूरी नहीं। कई बार रंग गहरे होते जाते हैं।
मन श्वेतपट्ट है। बुझी बुझी लकीरों से भरा। दिल, रेत के धोरे की उपत्यका है, जिसमें एक सूखी नदी बहती है। ये कितना उदास दृश्य है। इस दृश्य से अधिक सुंदर भी क्या होगा?
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लेखक भले ही चला जाये उसकी रचनाएं बस इतनी ही दूर होनी चाहिए कि एक क्लिक से पहुंचा जा सके। इसलिए फेसबुक पेज बना था। प्रोफ़ाइल डीएक्टिवेट कर दूं तो भी दोस्त देखते रहें कि यहीं हूँ।
पेज की कवर पिक में एक किसान बाबा पुलिसिया लठैतों से अकेले लाठी लड़ा रहे थे। ये चित्र इस बरस का सबसे बड़ी आशा से भरा छायाचित्र है।
मौसम बदलते रहने चाहिए। जिजीविषा, रूमान, नीरवता, चहचहाट सब जीवन में बारी बारी से आने चाहिए। वे अगर अप्रत्याशित हों तो और भी अच्छा।