हमें हमारे बारे में क्या बताना चाहिए और जो हम बताएंगे क्या वह पर्याप्त और उचित होगा? क्या उस सबके होने से हम ये कह पाएंगे कि जीवन का ठीक उपयोग कर सके। ठीक न सही, क्या इतना भर कह पाएंगे कि जीवन जैसे जीना चाहते थे वैसे जिए। अगर न जी सके तो क्या ये कह पाएंगे कि हमने कोशिशें ईमानदारी से की थी।
अगर हम अपने बारे में बताना चाहें।
मैं अगर अपने परिचय में एक काफी लम्बी उम्र के बारे में लिख दूँ। जीवन जीने के लिए किये कार्यों का ब्यौरा दूँ। जैसे मैंने अख़बारों और पत्रिकाओं में लिखना सीखा। मैंने रेडियो के लिए बोलने का शऊर जाना। मैंने आत्मा में कीलों की तरह चुभी हुई घटनाओं को कहानी के रूप में कहकर मुक्ति चाही। प्रेम के वहम में जो महसूस किया उसे कविता की तरह बातें बेवजह कहकर एक ओर रख दिया।
क्या रेडियो ब्रॉडकास्टर होना, पत्रिकाओं के पन्नों पर अपनी तस्वीरों के साथ छपना, कहानी की किताबों वाला कहलाया जाना कोई बड़ी बात है?
पक्का नहीं ही।
ये कहना कि मैं अपनी किताबों का प्रचार नहीं करता भी एक तरह का प्रचार है। ये कहना कि मैंने जो किया उससे कोई मोह नहीं है, ये भी एक तरह से अपने विगत का प्रदर्शन ही है।
इस सबके बीच क्या करें? चुप रहें, हर किसी के देखने-पूछने की पहुंच से दूर हो जाएं?
अपने बारे में अब तक जो बात ठीक सी लगती है वह ये है कि मैं मेले में घूम रहा नादान बच्चा हूँ। जो हर ठेले, रेड़ी और दुकान में रखे सामान को छूता है और आगे दौड़ जाता है। कभी वह चुप बैठा देखता रहता है और उसे कोई चाहना नहीं होती। वह बच्चा मेले से जब अपने पास लौटता है तो अनमना उदास बैठा दिखता है लेकिन असल में उस बच्चे सहित कोई भी ये नहीं जानता कि हुआ क्या है?
तुम अजाने उससे खफ़ा हो सकते हो, अजाने ही मोहित भी। अजाने जो होता है, होने दो। सोचो मत।
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तस्वीर आकाशवाणी के मुख्यद्वार के पास सुरक्षापाल के बैठने की जगह की है। मुख्यद्वार कुर्सी की पीठ की ओर है। ये नए ज़माने की चौकीदारी है।
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