जिस बरस वह लड़की मिली थी, मैं उस बरस की तसवीरों तक गया। मुझे देखना था कि मैं उन दिनों कैसा दिखता था। आह ! क्या हाथ लगा पता है? एक बिखरा टूटा हुआ आदमी। एक ठोकर उसके सामने खड़ी थी। वह उदास, शिथिल था। वह न आगे बढ़ पाता था, न ही लौटना उसके बस की बात थी। ऐसे हाल में भला क्या किसी को वे बातें पसंद आई होंगी, जो रिस रहे खून की तरह बहती गाढ़ी स्याही से लिखी थी।
कभी-कभी स्याही से नमी की तरह जीवन से प्रेम उड़ जाता है। गाढ़ा बिछोह शेष रह जाता है।
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फ्रीज़ेश कारीन्थी की एक कहानी है- एक तरफा प्यार। कहानी का नायक जिससे प्रेम करता है, उसी से विवाहित है। वह उसे प्रेम नहीं कर पाता। उसे लगता है कि हमारे बीच की वासना प्रेम में बाधा है। वह उसके साथ रहते हुये, उससे दूर रहना चाहता है ताकि उसे प्रेम कर सके। इस कहानी को मैंने दो हज़ार दस में पढ़ा था। आठ साल बाद ठीक से याद नहीं है कहानी क्या कहती है। अब उस कहानी को कभी दोबारा पढ़ूँगा तो वह नए अर्थ में समझ आएगी।
जैसे हम जिन को खो चुके हैं, उनसे नए सिरे से मिल सकें तो वे काफी अलग जान पड़ेंगे। हमें लगेगा कि जिन बातों के लिए दुखी रहे, वास्तव में वे ऐसी थी ही नहीं कि कोई दुख हो। हम ख़ुद को नासमझ पाकर मुस्कुरा उठेंगे। हमने ये क्या किया?
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तस्वीर 25 अप्रेल 2013 की है। दुख के घने पतझड़ का मौसम था। मैं दिमाग को नाकाम करने वाली दवा खाकर कमरे मैं खड़ा हुआ था। सोच रहा था कि बाहर चला जाऊँ शायद आराम आए मगर डरा हुआ कि अभी तो बाहर से आया हूँ। वहाँ आराम नहीं था।
यही कोई दिन का एक बजा था। समय बदलता रहता था लेकिन दिन आगे नहीं बढ़ते थे। वे ठहर गए थे।
दवाएं अच्छी थी। दवाओं को खाने के बाद मुझे लगता था कि सर के भीतर घोड़े की नाल लगा दी गयी है। सर पत्थर जितना सख्त हो गया है। आस-पास से गुज़रते लोगों को देखकर कुछ महसूस नहीं होता। दुनिया बेजान चीज़ों से भर गयी है। मैं हाथ बढ़ाकर कुछ भी छूना नहीं चाहता। धूप में बैठ जाता हूँ तो धूप नहीं लगती। पसीना आता रहता है और हवा उसे सुखाती जाती है।
कभी मुझे अपने आप पर दया आती थी। मैं अपने हाथ को दूजे हाथ से छूता और कहता एक दिन सब नॉर्मल हो जाएगा। सब।
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पता नहीं कैसे छोटे बच्चे सोच लेते हैं कि कोई उनका प्यार चुरा लेता है। कि अपने आप से ही फुरसत नहीं होती।