स्याह फ़टे हुए पलीते की तरह

ले गया छीन के कौन आज तिरा सब्र ओ क़रार 
बे-क़रारी तुझे ऐ दिल कभी ऐसी तो न थी।

उस की आँखों ने ख़ुदा जाने किया क्या जादू 
कि तबीअ'त मिरी माइल कभी ऐसी तो न थी।


~ बहादुर शाह ज़फ़र 
(24 October 1775 – 7 November 1862)

दीवाली है। दफ़्तर से घर आते समय रास्ते सुनसान थे मगर आसमान में आतिशबाज़ी दिख रही थी। जैसे हम किसी मोहब्बत में चटकने लगते हैं। हमें चटकाने वाला शरमाता रहता है लेकिन हम नए-नए ढब से खुलना चाहते हैं।

एक रोज़ शोरगर हमको छोड़कर चला जाता है। हम एक स्याह फ़टे हुए पलीते की तरह शेष रह जाते हैं। नए दिन हमको छोटे बच्चों की तरह ठोकरें मारते हैं। लेकिन हम उस बच्चे का इंतज़ार कर रहे होते हैं जो बुझे हुए बारूद में सलामत शोर खोज रहा होता है।

ये एक उम्मीद भर है। कोई जवाब नहीं आता, कोई अंगुली हमको नहीं चुनती। इसलिए दीवाली को इस तरह सजा लिया है।

चीयर्स।