रात भर स्वप्न झड़ते हैं
मैं एक बेंच पर बैठा हुआ इस बरसात को देखता हूँ।
झड़ते फूलों और सूखे पत्तों को हवा बुहार कर ले जाती। घास के किसी बूझे में कोई पत्ता ठहर जाता। कोई फूल किसी गिरह के साथ किनारे अटक जाता। हवा रुककर फिर से बहती। हवा के साथ और सूखे पत्ते और फूल आ जाते।
झड़ जाने के बाद हम एक नयी इच्छा पा सकते हैं। झड़े हुये पत्तों और फूलों के साथ बहते जाने की इच्छा। पीले, हल्के गुलाबी और ऐसे ही उड़े-उड़े रंगों के बीच अपना प्रिय रंग खोजने की इच्छा।
हम कहाँ जाएंगे। हवा कहाँ ले जाएगी? जिस तरह शाख से बंधे होने पर किसी से प्रेम करने के लिए कहीं जाया न जा सका। न कोई आ सका। क्या इसी तरह टूट बिखर जाने के बाद भी हम अलग कहीं उलझ जाएंगे?
क्या मौसमों को पार करते हुये बहुत दूर पहुँच कर भी एक लम्हे को ठहरना और फिर बिछड़ जाना है?
सफ़ेद कुर्ते पर जेब के पास नीले, लाल, पीले रंग फैलने लगते हैं। जैसे जेब में पानी के रंगों की टिकड़ियाँ रखीं थी। पतझड़ को देखकर उदासी में भीग गयी हैं। अब सब रंग फैलते जा रहे हैं।
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दायीं और हाथ बढ़ाता हूँ। पिछले महीनों तीन चश्मे टूट गए थे। इसलिए नीम नींद में भी अंगुलियाँ डरते हुये आहिस्ता से हर चीज़ को छूती है। एक पतली सी कमानी को छूते ही अंगुलिया ठहर जाती है। जैसे पहली छुअन पर ठिठक आती है।
सेलफोन के स्क्रीन पर लिखा है, रात के दो बजकर पैंतीस मिनट हुये है। और?
और कुछ नहीं।
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अचानक फिर से छोटे कच्चे स्वप्न झड़ने लगते हैं। दिल बैठता जाता है। थके पाँव दौड़कर सामने खड़े साये तक जाना चाहते हैं। वहाँ साया नहीं है मगर लगता है कि साया है। सांस टूट जाती है। कोई माया उसे फिर से जोड़ देती है। फिर से किसी छोटी पहाड़ी से फिसलने लगता हूँ। पीछे कोई है मगर नहीं है।
अगर फूलों की तरह, कच्चे सपनों की तरह, किसी नए मोह भरे जादू की तरह खुद को झड़ते हुये खुद को देख सकें तो?
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आखिर में वो बात लिखनी थी मगर नहीं लिख रहा हूँ। लेकिन शुक्रिया केसी तुम अच्छे हो कि जागती आँखों के बाद नींद में मुसलसल डरे हुये भी ख़्वाब देख लेते हो।
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