प्रियंका गोस्वामी की आवाज़

जीवन हमें भीतर से बुहारता रहता है। एक दिन हमारे पास कुछ नहीं बचता। न सुख न सन्ताप।

ये कल सुबह की बात है। रेल के स्लीपर कोच में साइड बर्थ पर हम आमने सामने बैठे हुए थे। मैंने अपने इयरफोन देते हुए कहा- "सुनो"

"कौन है?"
"एक रेडियो प्रजेंटर है। मेरी ताज़ा पोस्ट पढ़ रही है"

ढाई मिनट बाद कहा- "वाह! बहुत अच्छा पढा। ड्रामा की आर्टिस्ट है क्या?"

मैंने कहा- "दोस्त है लेकिन मेरी कभी बात न हुई।"
"अच्छा। ये आवाज़ तो आपकी उस दोस्त से ज़रा-ज़रा मिलती भी है"
"कौनसी?"
"अरे वो जिसके दो बेटियां हैं"

दफ़अतन तीन नाम एक साथ कौंधे। मैंने पूछा- "क्या आप सचमुच उसका नाम भूल गयी हैं?" जवाब में सलवटों भरी पेशानी हाँ की तरह हिली।

मैंने जो नाम लिया वह ग़लत ठहरा। दूजी बार में उत्तर सही हो गया।
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समदड़ी रेलवे जंक्शन है। जब से मैंने इस गांव के बारे में सुना था तब से यही जाना कि इस गांव की कोई कल्चर नहीं है। वे जगहें जहां पर अलग दिशाओं से प्रवासी आते और बसते गए। जहां से दो से अधिक दिशा को रास्ते जाते हों, वे अनेक संस्कृतियों के संगम हो जाते हैं। उनकी अपनी कल्चर जैसा कुछ नहीं बचता।

बायतु जंक्शन नहीं है इसलिए अपने भीतर सैंकड़ों बरसों की परम्परा और पहचान लिए हुए है।

समदड़ी स्टेशन पर मैं चाय और पकोड़े लेकर आया। मुझे रेल स्टेशनों पर कुछ भी खाने पीने का मन नहीं होता मगर कल था। मैंने चाय पकड़ाते हुए कहा- "मैं कितना समदड़ी हो गया हूँ।"

वह हंसी भरे होंठ बांधे हुए देखती रही।
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